शब्द का अर्थ
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					विशेष					 :
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					वि० [सं० वि√शिष् (विशेषता होना)+घञ्] १. जिसमें औरों की अपेक्षा कोई नयी बात हो। विशेषता-युक्त। २. जिसमें औरों की अपेक्षा कुछ अधिकता हो। ३. विचित्र। विलक्षण। ४. बहुत अधिक। विपुल। पुं० १. वह जो साधारण से अतिरिक्त और उससे अधिक हो। अधिकता। ज्यादती। २. अन्तर। ३. प्रकार। भेद। ४. विचित्रता। विलक्षणता। ५. तारतम्य। ६. नियम। कायदा। ७. अंग। अवयव। ८. चीज। पदार्थ। वस्तु। ९. व्यक्ति। १॰. निचोड़। सार। ११. साहित्य में, एक प्रकार का अलंकार जिसके तीन भेद कहे गये हैं।				 | 
			
			
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					विशेषक					 :
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					वि० [सं०] विशेष रूप देने या विशिष्टता उत्पन्न करनेवाला। पुं० १. विशेषता बतलाने वाला चिन्ह तत्त्व या पदार्थ। २. माथे पर लगाया जानेवाला टीका या तिलक जो प्रायः किसी सम्प्रदाय के अनुयायी होने का सूचक होता है। ३. प्राचीन भारत में, अगर, कस्तूरी, चंदन आदि से गाल माथे आदि पर की जानेवाली एक प्रकार की सजावट। ४. साहित्य में एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें पदार्थो से रूप-सादृश्य होने पर भी किसी एक की विशिष्टता के आधार पर उसके पार्थक्य का उल्लेख होता है। उदाहरण—कागन में मृदुबानि ते मैं पिक लियो पिछान।—पद्याकर। ५. एक प्रकार का समवृत्त वर्णिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में ५ भगण और एक गुरु होता है। इसे अश्वगीत, नील, और लीला भी कहते हैं। ६. साहित्य में ऐसे तीन पदों या श्लोकों का वर्ग या समूह जिनमें एक ही क्रिया होती है, और इसी लिए इन तीन पदों या श्लोकों का एक साथ अन्वय होता है। ७. तिल का पौधा। ८. चित्रक। चीता।				 | 
			
			
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					विशेषक चिन्ह					 :
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					पुं० [सं०] वे चिन्ह जो वर्णमाला के अक्षरों या वर्णों पर उसका कोई विशिष्ट उच्चारण प्रकार सूचित करने के लिए लगाये जाते हैं (डायाक्रिटिकल मार्क्स)				 | 
			
			
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					विशेषज्ञ					 :
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					पुं० [सं० विशेष√ज्ञा (जानना)+क] [भाव० विशेषज्ञता] वह जो किसी विषय का विशेष रूप से ज्ञाता हो। किसी विषय का बहुत बड़ा पंडित।				 | 
			
			
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					विशेषण					 :
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					पुं० [सं०] १. वह जिससे किसी प्रकार की विशेषता सूचित हो। २. व्याकरण में ऐसा विकारी शब्द जो किसी संज्ञा की विशेषता बतलाता हो, उसकी स्थिति मर्यादित करता हो अथवा उसे अन्य संज्ञाओं से पृथक् करता हो (ऐडजेक्टिव)।				 | 
			
			
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					विशेषता					 :
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					स्त्री० [सं० विशेष+तल्+टाप्] १. विशेष होने की अवस्था या भाव। २. किसी वस्तु या व्यक्ति में औरों की अपेक्षा होनेवाली कोई अच्छी बात।				 | 
			
			
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					विशेषांक					 :
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					पुं० [सं० विशेष+अंक] सामयिक पत्र का वह अंक जो विशिष्ट अवसर पर या किसी विशेष उद्देश्य से और साधारण अंकों की अपेक्षा विशिष्ट रूप में या अलग से प्रकाशित होता है (स्पेशल नम्बर)।				 | 
			
			
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					विशेषाधिकार					 :
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					पुं० [सं०] किसी विशिष्ट व्यक्ति को विशेष रूप से मिलनेवाला कोई ऐसा अधिकार जिससे उसे कुछ सुभीता भी मिलता हो। (प्रिविलेज)।				 | 
			
			
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					विशेषित					 :
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					भू० कृ० [सं० वि√शिष् (विशेषता होना)+क्त] १. जिसमें विशेषता लाई गई हो। २. (संज्ञा शब्द) जिसकी विशेषता कोई विशेषण मर्यादित करता हो।				 | 
			
			
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					विशेषी					 :
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					वि [सं० वि√शिष्+णिन] जिसमें कोई विशेष बात हो। विशेषता-युक्त। विशिष्ट।				 | 
			
			
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					विशेषोक्ति					 :
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					स्त्री० [सं० विशेष+उक्ति] साहित्य में एक अर्थालंकार जिसमें कारण के पूरी तरह से वर्तमान रहते भी कार्य के अभाव का अथवा किसी क्रिया के होने पर भी उसके परिणाम या फल के अभाव का उल्लेख होता है। (पिक्यूलियर+एलेजेशन) यह विभावना का बिल्कुल उल्टा है। इसके उक्त निमित्ता, अनुरक्त निमित्ता और औचित्य निमित्ता ये तीन भेद माने गये हैं।				 | 
			
			
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					विशेष्य					 :
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					पुं० [सं० वि√शिष्+ण्यत्] व्याकरण में वह शब्द अथवा पद जिसकी विशेषता कोई विशेषण या विशेषण पद सूचित करता या कर रहा हो।				 | 
			
			
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					विशेष्य-लिंग					 :
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					पुं० [सं०] व्याकरण में ऐसा शब्द जिसका लिंग उसके विशेष्य के लिंग के अनुसार निरूपित हो। जैसे—पाले या हिम के अर्थ में शिशिर शब्द पुं० है शीत काल के अर्थ में पुन्नपुंसक तथा शीत से युक्त पदार्थ के अर्थ में विशेष्य लिंग होता है। अर्थात् उसका वहीं लिंग होता है, जो उसके विशेष्य का होता है।				 | 
			
			
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					विशेष्यासिद्ध					 :
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					स्त्री० [सं० विशेष्य+असिद्धि, तृ० त०] तर्कशास्त्र में ऐसा हेत्वाभाव जिसके द्वारा स्वरूप की असिद्धि हो।				 | 
			
			
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