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वास  : पुं० [सं० वस्+घञ्] १. किसी स्थान पर टिक कर रहना। अवस्थान। निवास। जैसे— कल्पवास, कारावास, स्वर्गवास आदि। २. घर। मकान। ३. अडूसा। वासक। ४. गंध। बू। पुं० [सं० वस्त्र] कपड़ा। वस्त्र। उदाहरण—धरौ निधि नील वास उत्तर सुधारत हौ।—सेनापति।
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वास-स्थान  : पुं० [सं०] रहने की जगह। निवास-स्थान। आवास (एबोड)।
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वासक  : पुं० [सं० वास+ण्वुल्-अक] १. अडूसा। २. दिन। दिवस। ३. शालक राग का एक भेद।
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वासक-सज्जा  : स्त्री० [सं० वासक√सज्ज (तैयार होना)+णिच्+अण्+टाप्] साहित्य में वह नायिका जो स्वयं सज-संवरकर तथा घर-वार सँवारकर प्रिय की प्रतीक्षा में बैठी हुई हो।
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वासग  : वि० [सं० वासक] बसानेवाला। पुं०=वासुकि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वासगृह  : पुं० [सं०] वासभवन।
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वासंत  : पुं० [सं० वसन्त+अण्] १. कोयल। २. मलयानिल। ३. मूँगा। मैनफल। ४. ऊँट।
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वासत  : पुं० [सं०√वास् (शक करना)+अतच्] गधा।
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वासंतक  : वि० [सं० वासंत+कन् अथवा वसंत+वुञ्-अक] १. वसंत संबंधी। २. वसंत ऋतु में होनेवाला।
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वासति  : पुं० [सं० ब० स०] १. उत्तर भारत का एक प्राचीन जनपद। २. उक्त जनपद का निवासी। ३. इक्ष्वाकु का एक पुत्र।
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वासंतिक  : पुं० [सं० वसन्त+ठक्—इक] १. भाँड़। २. नर्तक। वि० वसंत सम्बन्धी।
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वासंती  : स्त्री० [वासन्त+ङीष्] १. माधवीलता। २. जूही। ३. दुर्गा। ४. गनियारी। ५. मदनोत्सव। ६. एक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में १४-१४ वर्ण होते हैं।
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वासतेय  : वि० [सं० वसति+ढञ्-एय] बस्ती के योग्य। रहने लायक (स्थान)।
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वासंदर  : स्त्री० [सं० वैश्वानर] आग। अग्नि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वासन  : पुं० [सं० वसि+ल्युट-अन] [वि० वासित] १. निवास करना। बसना। २. सुगंधित करना। वासना। ३. वसन। कपड़ा। ४. ज्ञान।
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वासना  : स्त्री० [सं०√वस् (मिलना)+णिच्+युच्-अन+टाप्] १. कोई ऐसी आकांक्षा, इच्छा या कामना जो मन में दबी हुई बनी या बसी रहती हो। विशेष—शास्त्रों में कहा है कि यह किसी पूर्व संस्कार के फलस्वरूप में बनी रहती है और जब तक इसका अन्त नहीं होता, तब तक मनुष्य को मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती। न्याय-शास्त्र में कहा गया है कि वह एक प्रकार का मिथ्या संस्कार है, जो शरीर को आत्मा से भिन्न समझने की दशा में मन में बना रहता है। २. किसी चीज या बात की ऐसी इच्छा या वासना जिसकी पूर्ति सहज में न हो सकती हो। ३. ज्ञान। ४. दुर्गा का एक नाम। ५. अर्क की पत्नी का नाम। स०=वासना (गन्ध से युक्त करना)।
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वासभवन  : पुं० [सं०] १. रहने का घर। २. प्राचीन भारत में धवल गृह का वह ऊपरी भाग (सौध से भिन्न) जिसमें स्वयं राजा और रानियाँ रहा करती थीं २. अन्तः पुर। ३. शयनागार।
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वासर  : पुं० [सं०√वस् (निवास करना)+णिच्+अर] १. दिन। दिवस। २. वह कमरा या घर जिसमें वर-वधू की सोहागरात होती है।
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वासर-कन्यका  : स्त्री० [ष० त०] रात्रि। रात।
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वासरमणि  : पुं० [सं० ष० त०] सूर्य।
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वासरिक  : वि० [सं०] १. वासर संबंधी। वासर का। २. प्रतिदिन होनेवाला। दैनिक।
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वासरेश  : पुं० [सं०] सूर्य।
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वासव  : वि० [सं०] १. वसु-संबंधी। २. इन्द्र-संबंधी। इन्द्र का। पुं० १. इन्द्र। २. धनिष्ठा। नक्षत्र।
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वासवि  : पुं० [सं०] १. इन्द्र के पुत्र जयंत। २. अर्जुन।
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वासवी  : स्त्री० [सं० वासव+ङीष्] १. व्यास की माता सत्यवती। मत्स्यगंधा। २. इन्द्राणी। शची।
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वासवेय  : पुं० [सं० वासवी+ढञ्-एय] वासवी के पुत्र, वेदव्यास।
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वासा  : स्त्री० [सं०√वस्+णिच्+अच्+टाप्] १. वासक। अडूसा। २. माधवी लता। पुं०=बासा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वासामात्य  : पुं० [सं० वास+अमात्य] वह राजकीय अधिकारी जो किसी पराये राज्य में वहाँ के शासन आदि पर दृष्टि रखने के लिए अमात्य के रूप में रखा जाता हो। (रेजिडेन्ट)।
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वासि  : पुं० [सं० वस+इञ्] एक प्रकार का छोटा कुल्हाड़ा या बसूला।
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वासित  : भू० कृ० [सं० वास+क्त, इत्व] १. वास अर्थात् सुगंध से युक्त सुगंधित किया या महकाया हुआ। २. कपड़े से ढका हुआ। ३. देर का बना हुआ। बासी।
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वासिता  : स्त्री० [सं० वासित+टाप्] १. स्त्री। २. हथनी। ३. आर्या छन्द का एक भेद जिसके प्रत्येक चरण में ९ गुरु और ३९ लघु वर्ण होते हैं।
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वासिल  : वि० [अ०] १. जिसका वस्ल अर्थात् संयोग हुआ हो। २. जो वसूल अर्थात् प्राप्त हुआ हो। पद—वासिल-बाकी।
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वासिल-बाकी  : पुं० [अ+फा०] ऐसी सभी धनराशियाँ या रकमें जो या तो प्राप्य होने पर प्राप्त या वसूल हो चुकी होने अथवा अभी प्राप्त या वसूल होने को बाकी हो।
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वासिलात  : पुं० [अ० वासिल का बहु०] वे धनराशियाँ या रकमें जो वसूल हो चुकी हों।
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वासिष्ठ  : वि० [सं० वसिष्ठ+अण्] वसिष्ठ संबंधी। पुं० १. वसिष्ठ का वंशज। २. खून। लहू।
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वासिष्ठी  : स्त्री० [सं० वसिष्ठ+ङीष्] गोमती नदी।
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वासी (सिन्)  : वि० [सं० वास+इनि] रहनेवाला। बसनेवाला। जैसे—काशीवासी, मथुरावासी। स्त्री० [सं० वस+इञ+ङीष्] बढ़इयों का बसूला।
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वासु  : पुं० [सं०] १. विष्णु। २. आत्मा। ३. परमात्मा। ४. पुनर्वसु। नक्षत्र।
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वासुकि  : पुं० [सं० वासु√कै+क+इञ्] १. आठ नाग राजाओं में से एक जो कश्यप के पुत्र माने जाते हैं तथा जिनका उपयोग समुद्र-मन्थन के समय रस्सी के रूप में किया गया था। २. एक प्राचीन देवता।
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वासुकेय  : वि० [सं०] वासुकि-सम्बन्धी। पुं०=वासुकि।
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वासुदेव  : पुं० [सं०] १. वसुदेव के पुत्र श्रीकृष्णचन्द्र। २. पीपल का पेड़।
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वासुदेव-धर्म  : पुं० [सं०] वि० पू० चौथी, पाँचवी शती का एक धार्मिक संप्रदाय जो वासुदेव या श्रीकृष्ण का उपासक था। यह ‘एकांतिक धर्म’ का विकसित रूप था।
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वासुदेवक  : पुं० [सं० वासुदेव+कन्] वासुदेव या श्रीकृष्ण के उपासक।
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वासुंधरेयी  : स्त्री० [सं० वासुन्धरेय+ङीष्] सीता।
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वासुभद्र  : पुं० [सं०] वासुदेव। श्रीकृष्णचन्द्र।
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वासुर  : पुं०=वासर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वासुरा  : स्त्री० [सं० वास+उरण्+टाप्] १. स्त्री। २. हथनी। ३. जमीन। भूमि। ४. रात। रात्रि।
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वासू  : स्त्री० [सं० वास+ऊ (बहु०)] नाटक में सेविका बननेवाली स्त्री के लिए संबोधन रूप में प्रयुक्त शब्द।
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वासोख्त  : पुं० [फा०] १. दिल के बहुत ही जले हुए या दुःखी रहने की अवस्था या भाव। मानसिक सन्ताप। २. उर्दू फारसी में मुसछम (षट्-पदी) के रूप में लिखा हुआ वह काव्य जिसमें प्रेमिका के उपेक्षापूर्ण दुर्व्यवहारों के कारण परम दुःखी होकर प्रेमी उसे जली-कटी बातें सुनाता और अपने दिल के फफोले फोडता है।
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वासोख्ता  : वि० [फा०] १. जला हुआ। २. दिल-जला।
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वास्कट  : स्त्री० [अ० वेस्टकोट] पाश्चात्य ढंग की बिना आस्तीन की कुरती या फतुही।
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वास्तव  : वि० [सं० वस्तु+अण्] जो वस्तु या तथ्य के रूप में हो। यथार्थ। सत्य। पुं० परमार्थ अथवा मूलतत्त्व या भूत। पद—वास्तव में=वास्तविकता यह है कि। हकीकत में।
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वास्तविक  : वि० [सं० वस्तु+ठक्-इक] [भाव० वास्तविकता] १. जो वास्तव में हो। जो अस्तित्व में हो। विशेष—यथार्थ और वास्तविक में मुख्य अन्तर यह है कि यथार्थ में उचित और न्यायसंगत होने का भाव प्रधान है और उसका अर्थ है जैसा होना चाहिए, वैसा। परन्तु वास्तविक मुख्यतः इस भाव का सूचक है कि किसी चीज या बात का प्रस्तुत या वर्तमान रूप क्या अथवा कैसा है। काल्पनिक या मिथ्या से भिन्न। (रियल)। २. (वस्तु) जो खरी तथा प्रामाणिक हो।
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वास्तविकता  : स्त्री० [सं०] १. वास्तविक होने की अवस्था या भाव। (रिएलिटी) २. ऐसी स्थिति जो सत्य हो। ३. ऐसी बात जो घटित हुई हो।
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वास्तव्य  : वि० [सं०√वस्+तव्यत्] १. निवास करने अर्थात् बसने या रहने के योग्य। (स्थान) २. निवास करने या बसनेवाला (व्यक्ति)। पुं० बसी हुई जगह बस्ती।
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वास्ता  : पुं० [अ० वास्तः] १. संबंध। लगाव। सरोकार। मुहावरा— (किसी का) वास्ता देना=किसी की शपथ देना (पश्चिम) (किसी से) वास्ता पड़ना=किसी से लेन-देन या व्यवहार स्थापित होना। २. मित्रता। ३. अवैध संबंध विशेषतः पर-स्त्री और पर-पुरुष का। ४. जरिया। द्वारा।
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वास्तु  : पुं० [सं०] १. बसने या रहने के लिए अच्छा और उपयुक्त स्थान। २. वह स्थान जिस पर रहने के लिए मकान बनाया जाय। ३. बनाकर तैयार किया हुआ घर या मकान। ४. ईंट, चूने, पत्थर, लकड़ी आदि से बनाकर तैयार की जानेवाली कोई रचना। इमारत। जैसे—कूआँ, तालाब, पुल आदि।
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वास्तु-कर्म (न्)  : पुं० [ष० त०] इमारत बनाने का काम।
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वास्तु-कला  : स्त्री० [सं०] वास्तु या मकान, महल आदि बनाने की कला जिसके अन्तर्गत चित्रण और तक्षण दोनों आते हैं और जो बिलकुल आरभिक तथा सब कलाओं की जननी मानी गई है। (आर्किटेक्चर)।
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वास्तु-काष्ठ  : पुं० [सं०] इमारत के काम में आनेवाली लकड़ी, अर्थात् किवाड़,चौखट,धरनें आदि बनाने के योग्य लकड़ी।
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वास्तु-पुरुष  : पुं० [सं०] वास्तु अर्थात् इमारत का या बसने योग्य स्थान का अधिष्ठाता देवता।
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वास्तु-पूजा  : स्त्री०=वास्तु-शांति।
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वास्तु-बंधन  : पुं० [ष० त०] इमारत बनाने का काम।
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वास्तु-यान  : पुं० [सं०] वह याग जो नये घर में प्रवेश करने से पहले किया जाता है।
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वास्तु-विद्या  : स्त्री०=वास्तु-कला।
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वास्तु-वृक्ष  : पुं० [सं०] वह वृक्ष जिसकी लकड़ी इमारत के काम आती हो।
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वास्तु-शांति  : स्त्री० [सं०] कर्मकांड संबंधी वे कृत्य जो गृह-प्रवेश से पहले वास्तु या मकान के दोष शांत करने के लिए किए जाते हैं और जिसमें वास्तु-पुरुष का पूजन प्रधान होता है।
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वास्तु-शास्त्र  : पुं० [सं०]=वास्तु-कला।
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वास्तुक  : पुं० [सं० वास्तु+कन्] १. बथुआ नाम का साग। २. पुनर्नवा। गदहपूरना।
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वास्तुप वास्तुपति  : पुं०=वास्तु-पुरुष।
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वास्तूक  : पुं० [सं० वास्तु+कन्, पृषो० दीर्घ] बथुआ (साग)।
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वास्तूपशम,वास्तूपशमन  : पुं०=वस्तु-शांति।
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वास्ते  : अव्य० [अ०] १. निमित्त। लिए। जैसे—मेरे वास्ते किताब लाना। २. सबब। हेतु। जैसे— मैं भी इसी वास्ते वहाँ गया था।
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वास्तेय  : वि० [सं० वस्ति+ढञ्-एय] १. वास्तु-संबंधी। २. बसने या रहने के योग्य। (स्थान)।
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वास्तोष्पति  : पुं० [सं० ष० त०] १. इन्द्र। २. देवता। ३. वास्तुपति।
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वास्त्र  : वि० [सं० वस्त्र+अण्] १. वस्त्र-संबंधी। २. वस्त्र से बना हुआ। ३. ढका हुआ। पुं० प्राचीन भारत में वह रथ जो कपड़े से ढका होता था।
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वास्य  : वि० [सं० वास+यत्] १. (स्थान) जो बसने के योग्य हो। २. (स्थान) जो छाये जाने के योग्य हो।
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