शब्द का अर्थ
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					राहु					 :
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					पुं० [सं०√रह् (त्याग)+उण्] १. पुराणानुसार नौ ग्रहों में से एक जो विप्रचिति के वीर्य से सिहिंका के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। विशेष—प्राचीन काल में चंद्रमा के आरोह-पात और अवरोह-पात वाले बिंदुओं को क्रमात् राहु और केतु कहते थे (दे० ‘पात’) पर आगे चलकर पौराणिक काल में राहु की राक्षस रूप में कल्पना होने लगी और समुद्र-मंथन वाली कथा के प्रसंग में उसका सिर काटने की बात भी सम्मिलित हुई, तब केतु उस राक्षस का कबंध तथा राहु उसका सिर माना जाने लगा। लोक में ऐसा माना जाता है कि उसी के ग्रसने से चन्द्रमा और सूर्य को ग्रहण लगता है। २. लाक्षणिक अर्थ में, कोई ऐसा व्यक्ति या पदार्थ जो किसी की सत्ता के लिए विशेष रूप से कष्टदायक या घातक हो। पुं० [सं० राघव] रोहू मछली।				 | 
			
			
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					राहु-ग्रसन					 :
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					पुं० [सं० ष० त०] ग्रहण। उपराग।				 | 
			
			
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					राहु-ग्रास					 :
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					पुं० [सं० ष० त०] ग्रहण। उपराग।				 | 
			
			
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					राहु-दर्शन					 :
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					पुं० [सं० ष० त०] ग्रहण। उपराग।				 | 
			
			
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					राहु-भेदी (दिन्)					 :
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					पुं० [सं० राहु√भिद् (विदारण)+णिनि] विष्णु।				 | 
			
			
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					राहु-माता (तृ)					 :
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					स्त्री० [सं० ष० त०] राहु की माता सिहिंका।				 | 
			
			
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					राहु-रत्न					 :
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					पुं० [सं० मध्य० स०] गोमेद मणि जो राहु के दोषों का शमन करनेवाली मानी जाती है।				 | 
			
			
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					राहु-सूतक					 :
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					पुं० [सं० ष० त०] ग्रहण। उपराग।				 | 
			
			
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					राहु-स्पर्श					 :
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					पुं० [सं० ष० त०] ग्रहण। उपराग।				 | 
			
			
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					राहुल					 :
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					पुं० [सं०] यशोधरा के गर्भ से उत्पन्न गौतम बुद्ध के पुत्र का नाम।				 | 
			
			
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