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भक्त  : वि० [सं०√भज् (सेवा करना)+क्त, कुत्व] [भाव० भक्ति] १. बाँटा हुआ। भागों में बाँटा हुआ। जिसका या जिसके विभाग बंटे हुए हो। २. सबको बाँटकर हिस्से के मुताबिक दिया हुआ। ३. अलग या पृथक् किया हुआ। ४. किसी का पक्ष लेनेवाला। पक्षपाती। ५. अनुगामी। अनुयायी। ५. किसी पर भक्ति और श्रद्धा रखनेवाला। पुं० १. पका हुआ चावल। २. धन। ३. वह जो श्रद्धापूर्वक किसी को उपासना या पूजा करता या किसी पर पूरी निष्ठा रखता हो। ४. वह जो धार्मिक दृष्टि से मांस-मछली खाना पाप समझता हो।
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भक्त-गृह  : पुं० [सं० ष० त०] बौद्ध भिक्षुओं की भोजनशाला।
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भक्त-तूर्य्य  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का बाजा जो भोजन के समय बजाया जाता था।
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भक्त-दाता (तृ)  : पु० [सं० ष० त०] भरण-पोषण करनेवाला।
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भक्त-दास  : पुं० [सं० सुप्सुपा स०] वह भक्ति जिसे अपने सेव्य या स्वामी से केवल भोजन-कपड़ा मिलता हो।
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भक्त-पुलाक  : पुं० [सं० ष० त०] १. भात का कौर। २. माँड़। पीच।
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भक्त-प्रिय  : पुं० [सं० ष० त०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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भक्त-मंड  : पुं० [सं० ष० त०] माँड़। पीच।
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भक्त-मंडल  : पुं० [सं० ष० त०]=भक्तमंड।
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भक्त-वच्छल  : वि० दे० ‘भक्तवत्सल’।
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भक्त-वत्सल  : वि० [सं० स० त०] [भाव० भक्त-वत्सलता] जो भक्तों पर कृपा करता और स्नेह रखता हो। पुं० =विष्णु।
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भक्त-शरण  : पुं० [सं० ष० त०] भोजनशाला। रसोई-घर।
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भक्त-शाला  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. पाकशाला। रसोई घर। २. भक्त के बैठकर धर्मोपदेश सुनने का स्थान।
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भक्त-सिक्थ  : पुं० [सं० ष० त०] दे० ‘भक्तपुलाक’।
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भक्तजा  : स्त्री० [सं० भक्त√जन् (उत्पत्ति)+ड+टाप्] अमृत।
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भक्तता  : स्त्री० [सं० भक्त+तल्+टाप्] भक्ति।
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भक्तत्व  : पुं० [सं० भक्त+त्व] किसी के खंड या विभाग होने का भाव।
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भक्ताई  : स्त्री० [हिं० भक्त+आई (प्रत्यय)] भक्ति।
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भक्ति  : स्त्री० [सं०√भज्+क्तिन्] १. कोई चीज काटकर या और किसी प्रकार की टुकड़े या भागों में बाँटने की क्रिया या भाव। विभाजन। २. उक्त प्रकार से काटे हुए टुकड़े या किये हुए विभाग। ३. अंग। अवयव। ४. खंड। टुकड़ा। ५. ऐसा कोई विभाग जिसकी सीमाएँ रेखाओं के द्वारा अंकित या निश्चित हों। ६. उक्त प्रकार का विभाजन करनेवाली रेखा। ७. किसी प्रकार की रचना। ८. भावभंगी। ९. उपचार। १॰. किसी के प्रति होनेवाली निष्ठा, विश्वास या श्रद्धा। ११. उक्त के फलस्वरूप किसी के प्रति होनेवाला अनुराग,या स्नेह अतवा की जानेवाली किसी की सेवा-शुश्रुषा या अर्चन-पूजन। १२. धार्मिक क्षेत्र में, आराध्य, ईश्वर, देवता आदि के प्रति होनेवाला वह श्रद्धापूर्ण अनुराग जिसके फलस्वरूप वह सदा उसका अनुयायी रहता और अपने आपको उसका वशवर्ती मानता है। (डिवोशन)। विषेश-शांडिल्य के भक्तिसूत्र में यह सात्विकी राजसी और तामसी तीन प्रकार की कही गई है। १३. किसी बडे के प्रति होनेवाली पूज्य बुद्धि, श्रद्धा, या आदरभाव। १४. जैन मतानुसार वह वमन जिसमें निरतिशय आनन्द हो और जो सर्वप्रिय अनन्य प्रयोजनविशिष्ट तथा वितृष्णा का उदयकारक हो। १५. साहित्य में ध्वनि, जिसे लोग कुछ गौण और लक्षणागम्य मानते हैं। १६. प्राचीन बारत में कपड़ों की छपाई, रंगाई आदि में बनी हुई कोई विशेष आकृति या अभिप्राय। १७. छंद शास्त्र मे एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में तगण, भगण और अंत में गुरु होता है।
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भक्ति-गम्य  : वि० [सं० तृ० त०] भक्ति द्वारा प्राप्य। पुं० शिव।
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भक्ति-मार्ग  : पुं० [सं० ष० त०] ईश्वर-दर्शन या मोक्ष प्राप्ति के तीन मार्गों में से एक जिसमें ईश्वर को भक्ति से अनुरक्त तथा प्रसन्न किया जाता है।
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भक्ति-योग  : पुं० [सं० ष० त०] १. उपास्यदेव मे अत्यन्त अनुरक्त होकर उसकी भक्ति में लीन रहना। सदा भगवान् में श्रद्धापूर्वक मन लगाकर उनकी उपासना करना। २. भक्ति का साधन।
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भक्ति-वाद  : पुं० [सं० ष० त०] साहित्य में कुछ लोगों का ०यह मत या सिद्धांत कि काव्य में ध्वनि प्रमुख नहीं, बल्कि भक्ति (गौण और लक्षण गम्य है)।
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भक्ति-वादी (दिन्)  : वि० [सं० भक्तिवाद+इनि] भक्तिवाद सम्बन्धी भक्तिवाद का। पुं० वह जो भक्तिवाद का अनुयायी या समर्थक हो।
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भक्ति-सूत्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] वैष्णव संप्रदाय का एक सूत्र ग्रन्थ जो शांडिल्य मुनि का रचा हुआ माना जाता है और जिसमें भक्ति का विस्तृत विवेचन हैं।
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भक्तिमान् (मत्)  : वि० [सं० भक्ति+मतुप्] [स्त्री० भक्तिमती] १. जिसके विभाग हुए हों। २. जिसके मन में किसी प्रकार के प्रति भक्ति हो।
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भक्तिल  : वि० [सं० भक्ति√ला (लेना)+क] १. भक्तिदायक। २. विश्वसीय। पुं० विश्वसनीय घोड़ा।
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भक्ती  : स्त्री०=भक्ति। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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भक्तोपसाधक  : पुं० [सं० भक्त-उपसाधक, ष० त०] १. पाचक। रसोइया। २. वह जो परोसता हो।
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