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निरुक्त  : भू० कृ० [सं० निर्√वच् (कहना)+क्त] [भाव० निरुक्ति] १. ठीक, निश्चित और स्पष्ट रूप से कहा, बतलाया, या समझाया हुआ। जिसका उच्चारण, कथन या निरूपण उचित और यथेष्ट रूप में हुआ हो। सन्देह-रहित और स्पष्ट। २. जिसका निर्देश या विधान स्पष्ट रूप से हुआ हो। ३. चिल्लाकर या जोर से कहा हुआ। उद्घोषित। पुं० १. शब्द का ऐसा अर्थ या विश्लेषण जिससे उसके मूल या व्युत्पत्ति का भी पता चलता हो। २. वह ग्रन्थ या शास्त्र जिसमें शब्दों के अर्थ, पर्याय और व्युत्पत्तियाँ बतलाई गई हों। शब्दों की व्युत्पत्ति और विकारी रूपों के तत्त्व या सिद्धांत बतलानेवाला ग्रंथ या शास्त्र। शब्द-शास्त्र। (एटिमॉलोजी) विशेष–हमारे यहाँ इस शास्त्र का आरंभ ऐसे वैदिक शब्दों के विवेचन से हुआ था, जो पुराने पढ़ चुके थे और जिनके अर्थों के संबंध में मत-भेद या संदेह होता था। शब्दों के ठीक अर्थ और आशय समझने-समझाने के लिए उनके व्युत्पत्तिक आधार का निरूपण या विवेचन करना आवश्यक होता था। यह काम वैदिक साहित्य के ही सम्बन्ध में हुआ था; अतः इसे छः वेदांगों में चौथा स्थान मिला था। ३. उक्त विषय का यास्काचार्य कृत वह ग्रंथ जो वैदिक निघुंट की व्याख्या के रूप में है और जिसमें यह बतलाया गया है कि शब्दों में वर्ण-लोप, वर्ण-विपर्यय, वर्णागम आदि किस प्रकार के और कैसे होते हैं। विशेष–यास्काचार्य का स्थान उस समय के निरुक्तकारों में चौदहवाँ था। इसी से पता चल जाता है कि हमारे यहाँ इस विषय का विवेचन कितने प्राचीन काल में आरंभ हुआ था।
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निरुक्ति  : स्त्री० [सं० निर्√वच्+क्तिन्] १. निरुक्त होने की अवस्था या भाव। २. शब्दों का ऐसा निरूपण या विवेचन जो यह बतलाता हो कि शब्द किस प्रकार और किन मूलों से बने हैं और उनके रूपों में किस प्रकार परिवर्तन या विकार होते हैं। शब्दों की व्युत्पत्ति और विकारी रूपों के तत्त्व या सिद्धान्त बतलानेवाली विद्या या शास्त्र। शब्द-शास्त्र। (एटिमॉलाजी) ३. किसी शब्द का मूल रूप। व्युत्पत्ति। (डेरिवेशन) ४. साहित्य में, एक प्रकार का गौण अर्थालंकार जिसमें किसी शब्द के व्युत्पत्तिक विश्लेषण के आधार पर कोई अनूठी और कौशलपूर्ण बात कही जाती है; अथवा किसी नाम या संज्ञा का साधारण से भिन्न कोई विलक्षण व्युत्पत्तिक अर्थ निकालकर उक्ति में चमत्कार उत्पन्न किया जाता है। यथा–(क) ताप करत अबलान को, दया न चित कछु आतु। तुम इन चरितन साँच ही दोषाकर विख्यातु। यहाँ ‘दोषाकर’ शब्द के कारण निरुक्ति अलंकार हुआ है। चंद्रमा को दोषाकर इसलिए कहते हैं कि वह दोषा (रात) करता है। पर यहाँ दोषाकर का प्रयोग दोषों का आकार या भंडार के अर्थ में किया गया है। (ख) रूप आदि गुण सों भरी तजिकै व्रज-बनितान। उद्धव कुब्जा बय भये निर्गुण वहै निदान। यहाँ ‘निर्गुण’ शब्द की दो प्रकार की निरुक्तियों या व्युत्पत्तियों का आधार लेकर चमत्कार उत्पन्न किया गया है। आशय यह झलकाया गया है कि जो कृष्ण निर्गुण (अर्थात् सत्त्व, रज और तम तीनों गुणों से परे या रहित) कहे जाते हैं, वे कुब्जा जैसी निर्गुण (अर्थात् सब प्रकार के अच्छे गुणों या बातों से रहित या हीन) स्त्री के फेर में पड़कर अपना ‘निर्गुण’ वाला विश्लेषण चरितार्थ या सार्थक कर रहे हैं। इसी प्रकार के कथनों की गिनती निरुक्ति अलंकार में होती है।
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