शब्द का अर्थ
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त्रै :
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वि० [सं० त्रय] तीन। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
त्रैककुद् :
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पुं० [सं० त्रिककुद्+अण्] १. त्रिकूट पर्वत। २. विष्णु। |
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त्रैककुभ :
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पुं० [सं० त्रिककुभ+अण्]=त्रिककुभ। |
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त्रैकंटक :
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वि० [सं० त्रिकंटक+अण्] जिसमें तीन काँटे हों। पुं०=त्रिकंटक। |
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त्रैकाणिक :
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वि० [सं० त्रिकोण+ठञ्-इक] १. जिसमें तीन कोण हों। २. जिसके तीन पार्श्व हों। तिपहला। |
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त्रैकालज्ञ :
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पुं० [सं० त्रिकालज्ञ+अण्]=त्रिकालज्ञ। |
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त्रैकालिक :
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वि० [सं० त्रिकाल+ठञ्-इक] १. भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों लोकों में अर्थात् सदा रहनेवाला। २. प्रातः मध्याह्र और संध्या तीनों कालों में होनेवाला। |
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त्रैकाल्य :
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पुं० [सं० त्रिकाल+ष्यञ्] १. भूत, वर्तमान और भविष्यत् ये तीनों काल। २. प्रातःकाल मध्याह्न और सायंकाल। ३. जीवन की आरंभिक मध्यम और अंतिम ये तीनों स्थितियाँ। बचपन, जवानी और बुढापा। |
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त्रैकूटक :
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पुं० [सं० त्रिकूटक (त्रिकूट+कन्)+अण्] एक प्राचीन राजवंश। |
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त्रैगर्त :
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पुं० [सं० त्रिगर्त+अण्] १. त्रिगर्त्त देश का राजा। २. त्रिगर्त्त देश का निवासी। |
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त्रैगुणिक :
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भू० कृ० [सं० त्रिगुण+ठक्-इक] १. तिगुना किया हुआ। २. तीन बार किया हुआ। |
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त्रैगुण्य :
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पुं० [सं० त्रिगुण+ष्यञ्] सत्त्व, रज और तम इन तीनों गुणों का भाव या समूह। |
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त्रैदशिक :
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पुं० [सं० त्रिदशा+ठञ्-इक] उंगली का अगला भाग जो तीर्थ कहलाता है। |
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त्रैध :
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वि० [सं० त्रि+धमुञ्] १. तिगुना। २. तेहरा। अव्य तीन प्रकार से। |
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त्रैधातवी :
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स्त्री० [सं० त्रिधातु+अण्-ङीष्] एक प्रकार का यज्ञ। |
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त्रैपष्टिप :
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वि० पुं० [सं० त्रिपिष्टप+अण्] दे० ‘त्रैविष्टप’। |
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त्रैपुर :
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पुं० [सं० त्रिपुर+अण्]=त्रिपुर। |
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त्रैफल :
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पुं० [सं० त्रिफला+अण्] वैद्यक में त्रिफला के योग से तैयार किया हुआ घी। |
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त्रैबलि :
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पुं० [सं०] महाभारत के समय के एक ऋषि। |
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त्रैमातुर :
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पुं० [सं० त्रिमातृ+अण्, उत्व] लक्ष्मण। |
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त्रैमासिक :
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वि० [सं० त्रिमास+ठञ्-इक] हर तीसरे महीने होनेवाला जैसे–त्रैमासिक पत्रिका। |
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त्रैमास्य :
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पुं० [सं० त्रिमास+ष्यञ्] तीन महीनों का समय। |
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त्रैयंबक :
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वि० [सं० त्र्यम्बकं+अण्] त्र्यंबक-संबंधी। त्र्यंबक का। पुं० एक प्रकार का होम। |
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त्रैयंबिका :
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स्त्री० [सं० त्रैयम्बक+टाप्, इत्व] गायत्री। |
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त्रैराशिक :
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पुं० [सं० त्रिराशि+ठञ्-इक] गणित की एक क्रिया, जिसमें तीन राशियों की सहायता से चौथी अज्ञात राशि का मान निकाला जाता है। (रूल आँफ थ्री) |
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त्रैरूप्य :
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पुं० [सं० त्रिरूप+ष्यञ्] तीन रूपों का भाव। |
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त्रैलोक :
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पुं० [सं० त्रिलोक+अण्]=त्रैलोक्य। |
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त्रैलोक्य :
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पुं० [सं० त्रिलोकी+ष्यञ्] १. स्वर्ग, मर्त्य और पाताल तीनों लोक। २. इक्कीस मात्राओं के छंदो की संज्ञा। |
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त्रैलोक्य-चिंतामणि :
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पुं० [सं० स० त०] वैद्यक में एक प्रकार का रस, जो (क) सोने, चाँदी और अभ्रक के योग से अथवा (ख) मोती, सोने और हीरे के योग से बनता है। |
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त्रैलोक्य-विजया :
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स्त्री० [सं० ब० स०] भाँग। |
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त्रैलोक्य-सुंदर :
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पुं० [सं० ब० स०] पारे, अभ्रक, लोहे, त्रिफला आदि के योग से बननेवाला एक तरह का रस। (वैद्यक) |
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त्रैलोक्य-सुंदरी :
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स्त्री० [सं० स० त०] दुर्गा या देवी का एक रूप। |
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त्रैवर्गिक :
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पुं० [सं० त्रिवर्ग+ठञ्-इक] वह कर्म, जिससे धर्म, अर्थ और काम इन तीनों की साधना हो। वि० १. त्रिवर्ग संबंधी। तीन वर्गों का। २. तीन वर्गों में होनेवाला। |
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त्रैवर्ग्य :
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पुं० [सं० त्रिवर्ग+ष्यञ्] धर्म, अर्थ, काम ये तीन वर्ग या जीवन के उद्देश्य अथवा साधन। |
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त्रैवर्णिक :
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वि० [त्रिवर्ण+ठञ्-इक] जिसका संबंध तीन वर्णों से हो। तीन वर्णोवाला। पुं० ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों जातियों का धर्म। |
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त्रैवर्षिक :
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पुं० [सं० त्रिवर्ष+ठञ्-इक] हर तीसरे वर्ष होनेवाला। (ट्रीनियल)। |
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त्रैविक्रम :
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पुं० [सं० त्रिविक्रम+अण्] विष्णु। |
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त्रैविद्य :
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वि० [सं० त्रिविद्या+अण्] तीन वेदों का ज्ञाता। २. बहुत बड़ा चालाक। चलता-पुरजा। (व्यंग्य) |
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त्रैविष्टप :
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पुं० [सं० त्रिविष्टप+अण्] स्वर्ग में रहनेवाले अर्थात् देवता। |
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त्रैशंकव :
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पुं० [सं० त्रिशंकु+अण्] त्रिशक्कू के पुत्र राजा हरिशचन्द्र। |
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त्रैस्वर्य :
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पुं० [सं० त्रिस्वर+ष्यञ्] उदात्त, अनुदात्त और स्वरित तीनों प्रकार के स्वर। |
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त्रैहायण :
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वि० [सं० त्रिहायण+अण्]=त्रैवर्षिक। |
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