शब्द का अर्थ
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					तात					 :
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					पुं० [सं०√तन् (विस्तार)+क्त, दीर्घ, नलोप] १. पिता। बाप। २. पूज्य और बड़ा माननीय व्यक्ति। ३. आपसदारी के लोगों, इष्ट-मित्रों के लिए आदरसूचक और प्रेमपूर्ण संबोधन। वि० [सं० तप्त] तपा हुआ। गरम। तत्ता। पुं० १. कष्ट। दुःख। २. चिन्ता। फिकर। उदाहरण–-तुम्ह जावउ घर आपणोइ म्हारी केही तात। ढो० मा०।				 | 
			
			
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					तातगु					 :
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					पुं० [सं० तात+गो (वाचक शब्द) ब० स० ह्वस्व] चाचा।				 | 
			
			
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					तातन					 :
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					पुं० [सं० तात√नृत् (नाचना)+ड] खंजन पक्षी। खँडरिच।				 | 
			
			
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					तातरी					 :
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					स्त्री० [देश०] एक तरह का पेड़।				 | 
			
			
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					तातल					 :
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					पुं० [सं० तात√ला (लाना)+क] १. संबंध में वह पूज्य और बड़ा व्यक्ति जो पिता के समान या उसके स्थान पर हो। २. बीमारी। रोग। ३. पूर्ण या पक्के होने की अवस्था या भाव। पक्कापन। पक्वता। ४. लोहे का काँटा या कील। वि०=तत्ता। (तप्त या गरम)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)				 | 
			
			
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					ताता					 :
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					वि० [सं० तप्त, प्रा० तत्त] [स्त्री० ताती] तपा या तपाया हुआ। बहुत गरम ।				 | 
			
			
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					ताताचेई					 :
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					स्त्री० [अनु०] १. नृत्य मे विशेष प्रकार से पैर रखने के बोल। २. नाच। नृत्य।				 | 
			
			
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					तातार					 :
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					पुं० [फा०] १. तातार प्रदेश में होनेवाला। २. तातार प्रदेश-संबंधी। पुं० तातार प्रदेश का निवासी। स्त्री० तातार प्रदेश की भाषा।				 | 
			
			
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					ताति					 :
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					पुं० [सं०√ताय् (पालन करना)+क्तिच्] पुत्र। लड़का।				 | 
			
			
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					तातील					 :
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					स्त्री० [अ०] छुट्टी का दिन।				 | 
			
			
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					तात्कालिक					 :
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					वि० [सं० तत्काल+ठञ्-इक] १. तत्काल या तुरंत का। २. उस समय का।				 | 
			
			
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					तात्त्विक					 :
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					वि० [सं० तत्त्व+ठक्–इक] १. तत्त्व-संबंधी। २. तत्त्व से युक्त। ३. मूल सिद्धांत संबंधी। जैसे–तात्त्विक विचार। ४. यथार्थ। वास्तविक। पुं० वह जो तत्त्व या तत्त्वों से अच्छा ज्ञाता हो।				 | 
			
			
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					तात्पर्य					 :
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					पुं० [सं० तत्पर+ष्यञ्] १. शब्द, पद, वाक्य आदि का मुख्य आशय। २. अभिप्राय। हेतु।				 | 
			
			
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					तात्पर्यार्थ					 :
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					पुं० [सं० तात्पर्य-अर्थ, ष० त०] वाक्यार्थ से और शब्दार्थ से कुछ भिन्न अर्थ जो वक्ता के अभिप्राय या आशय का बोध कराता है।				 | 
			
			
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					तात्स्थ्य					 :
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					पुं० [सं० तत्स्थ+ष्यञ्] १. एक चीज या बात के अन्तर्गत दूसरी चीज या बात रहने की अवस्था या भाव। २. तर्क-शास्त्र और साहित्य में व्यंजनात्मक अर्थ बोध का वह भेद जिसमें किसी चीज के नाम से उस चीज के अन्दर की और सब चीजों, बातों आदि का आशय ग्रहण किया जाता है। जैसे–यदि कहा जाय, सारा घर मेला देखने गया है। तो उसका आशय यही माना जायगा कि घर में रहनेवाले सभी लोग या परिवार के सभी सदस्य मेला देखने गये हैं।				 | 
			
			
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