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चाव  : पुं० [हिं० चाह] १. किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति होनेवाली अनुरागजन्य और स्नेहपूर्ण ऐसी अभिलाषा या लालसा जिसमें यथेष्ट उत्कंठा भी मिली हो। अरमान। उदाहरण–चित्र केतु पृथ्वीपति राव। सुत हित भयो तासु हिय चाव।–सूर। मुहावरा–चाव निकालना=अभिलाषाएँ या लालसाएँ जी खोलकर पूरी करना। २. अनुराग। प्रीति। स्नेह। ३. उत्कंठा। ४. प्रिय या प्रेम-पात्र के साथ किया जानेवाला लाड़-प्यार। दुलार। उदाहरण–बिछुड़े सजन मिलाय दे मैं कर लूँ मन के चाव।–गीत। पद–चाव-चोचलेनाज=नखरे। ५. उत्साह और उमंग से भरा हुआ आनंद।
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चावड़ा  : पुं० [?] १. एक प्रकार के राजपूत। चावण। २. खत्रियों की एक उपजाति या वर्ग।
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चावड़ी  : स्त्री० [देश०] यात्रियों के टिकने या ठहरने का स्थान। पड़ाव।
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चावंडु  : पुं०=चांमुंड।
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चावण  : पुं० [देश०] गुजरात का एक प्रसिद्ध और प्राचीन राजपूत वंश जिसने कई शताब्दियों तक गुजरात में राज्य किया था। इस वंश की राजधानी अन्हिलवाड़ा में थी। महमूद गजनवी के आक्रमण के समय सोमनाथ चावण राजा के ही अधिकार में था।
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चावना  : स०=चाहना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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चावर  : पुं० =चावल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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चावल  : पुं० [सं० तंडुल] १. धान के बीजों के अन्दर के दाने जिनकी गिनती प्रसिद्ध अन्नों में हैं। विशेष–इनका उबाला या पकाया हुआ रूप ही भात कहलाता है। मुहावरा–चावल चबवाना=जिन लोगों पर कोई चीज चुराने के संदेह हो, उन्हें जादू-टोना के रूप में इस उद्देश्य से कच्चे चावल चबवाना कि जो चोर होगा, उसके मुंह से थूकने पर खून निकलेगा। २. उबाला या पकाया हुआ चावल। भात। ३. बीजों के छोटे दाने जो किसी प्रकार खाने के काम में आवें। जैसे–तिन्नी या साँवे के चावल। ४. लगभग एक चावल की तौल जो रत्ती के आठवें भाग के रूप में मानी जाती है। पद–चावल भर (क) रत्ती के आठवें भाग के बराबर। (ख) बहुत ही थोड़ा।
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