शब्द का अर्थ
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					कृपा					 :
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					स्त्री० [√कृप्,+अङ्,टाप्] १. उदारतापूर्वक अथवा स्वभावतः दूसरों की भलाई करने की वृत्ति। २. उदारता या सज्जनतापूर्वक किया हुआ ऐसा कार्य जिससे किसी की भलाई होती हो। (काइन्डनेस)।				 | 
			
			
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					कृपाचार्य					 :
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					पुं० [सं० कृप-आचार्य, कर्म० स०] गौतम ऋषि के पौत्र।				 | 
			
			
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					कृपाण					 :
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					पुं० [सं०√कृप् (सामर्थ्य)+आनच्] [स्त्री० अल्पा० कृपाणी] १. छोटी तलवार प्रायः जैसी सिख लोग अपने पास रखते हैं। कटार। २. ३२ वर्णों का एक वर्णवृत्त जो मुक्तक दण्डक का एक भेद है तथा जिससे प्रत्येक चरण में आठ-आठ वर्णों पर यति होती है।				 | 
			
			
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					कृपाणक					 :
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					पुं० [सं० कृपाण+कन्] दे० ‘कृपाण’।				 | 
			
			
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					कृपाणिका-					 :
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					स्त्री० [सं० कृपाणक+टाप्, इत्व] छोटी तलवार। कटारी।				 | 
			
			
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					कृपाणी					 :
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					स्त्री० [सं० कृपाण+ङीष्] छोटी तलवार।				 | 
			
			
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					कृपायतन					 :
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					पुं० [कृपा-आयतन, ष० त०] सब पर बहुत कृपा करनेवाला। अत्यंत कृपालु।				 | 
			
			
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					कृपाल					 :
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					वि०=कृपालु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)				 | 
			
			
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					कृपालता					 :
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					स्त्री०=कृपालुता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)				 | 
			
			
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					कृपालु					 :
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					वि० [सं० कृपा√ला (आदान)+डु] जो सब पर कृपा करता हो। कृपा करना जिसका स्वभाव हो।				 | 
			
			
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					कृपालुता					 :
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					स्त्री० [सं० कृपालु+तल्-टाप्] कृपा का भाव। कृपालु होने की अवस्था या भाव।				 | 
			
			
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