शब्द का अर्थ
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					कूक					 :
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					स्त्री० [हिं० कूकना (अ०)] १. कोयल या मोर की लंबी सुरीली ध्वनि। २. लंबी सुरीली ध्वनि। स्त्री० [हिं० कूकना (स)] घड़ी बाजे आदि को कूकने अर्थात् उनमें कुंजी देने की क्रिया या भाव।				 | 
			
			
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					कूकड़					 :
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					पुं० =कुक्कुट (मुरगा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)				 | 
			
			
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					कूकना					 :
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					अ० [सं० कूजन] १. कोयल, मोर आदि का कू-कू शब्द करना। २. कोयल या मोर की सी बोली बोलना। ३. सुरीली ध्वनि निकालना। स० [अनु] घड़ी, कमानीदार बाजे आदि चलाने के लिए उनकी चाबी या कुंजी घुमाकर उनमें दम भरना। कुंजी या चाबी देना।				 | 
			
			
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					कूकर					 :
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					पुं० [सं० कुक्कुर] [स्त्री० कूकरी] कुत्ता। श्वान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)				 | 
			
			
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					कूकर-निदिया					 :
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					स्त्री०=कूकरनींद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)				 | 
			
			
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					कूकरकौर					 :
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					पुं० [हिं० कूकर+कौर] १. कुत्ते के निमित्त छोड़ा हुआ उच्छिष्ट भोजन या ग्रास। २. तुच्छ या हीन वस्तु।				 | 
			
			
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					कूकरचंदी					 :
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					स्त्री० [हिं० कूकर+सं० चंड] एक प्रकार की जंगली जड़ी जिसके व्यवहार से कुत्ते के काटने पर होनेवाला घाव ठीक हो जाता है।				 | 
			
			
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					कूकरनींद					 :
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					स्त्री० [हिं० कूकर+नींद] ऐसी नीदं जो हलकी-सी आहट होने पर भी उचट जाय।				 | 
			
			
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					कूकरभँगरा					 :
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					पुं० [हिं० कूकर+हिं० भंगरा] १. काला। भँगरा। २. कुकरौंधा।				 | 
			
			
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					कूकरमुत्ता					 :
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					पुं० =कुकुरमुत्ता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)				 | 
			
			
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					कूकरलेंड					 :
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					पुं० [हिं० कूकर+लेंड] कुत्तों और कुत्तियों का मैथुन।				 | 
			
			
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					कूका					 :
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					पुं० [हिं० कूकना=जोर से चिल्लाना] १. सिक्खों का एक संप्रदाय जो सन् १८६७ में रामसिंह नाम के एक बढ़ई ने चलाया था, और जिसने आगे चलकर राजनीतिक रूप धारण किया था। नामधारी या निहंग संप्रदाय। २. उक्त संप्रदाय का अनुयायी व्यक्ति।				 | 
			
			
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					कूकी					 :
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					स्त्री० [देश] फस को हानि पहुँचाने वाला एक प्रकार का कीड़ा।				 | 
			
			
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