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शब्द का अर्थ

अवस  : क्रि० वि० -अवश्य। वि० =अवश।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
अवसक्त  : भू० कृ० [सं० अव√सञ्ज्+क्त] चिपका, सटा या लगा हुआ।
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अवसक्थिका  : स्त्री० [सं० ब० स० कप्-टाप्] १. बैठने की वह मुद्रा जिसमें पीठ और घुटने कपड़े से बाँध लिये जाते हैं। २. उक्त अंगों को बाँधनेवाला कपड़ा। ३. खाट का उनचन।
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अवसंजन  : पुं० [सं० अव√सञ्ज् (चिपकना)+ल्युट्-अन] गले लगाना। आलिंगन।
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अवसथ  : पुं० [सं० अव√सो (अंत करना)+कथन] १. रहने का स्थान। निवास स्थान। २. घर। मकान। ३. विद्यार्थियों के रहने का स्थान। (बोर्डिग, होस्टल)
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अवसन्न  : वि० [सं० अव√सद् (उदास या दुःखी होना)+क्त] [भाव० अवसन्नता] १. जिसे विषाद हो। दुःखी। २. नाश की ओर बढ़नेवाला। ३. उत्साह या तत्परता से रहित। सुस्त। ४. दबा या धँसा हुआ। ५. जो सुन्न या स्तब्ध हो गया हो।
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अवसन्नता  : स्त्री० [सं० अवसन्न+तल्-टाप्] १. अवसन्न होने की अवस्था या भाव। २. विषाद। दुःख। ३. विनाश। बरबादी। ४. आलस्य। सुस्ती।
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अवसर  : पुं० [सं० अव√सृ (गति)+अच्] १. नियत या निश्चित परिस्थिति या समय। जैसे—इसका अवसर एक वर्ष बाद आयेगा। २. ऐसी अनुकूल या वांछनीय परिस्थिति जिसमें अपनी रुचि के अनुसार कार्य किया जा सके। जैसे—ऐसा अवसर भाग्य से ही मिलता है। मुहावरा—अवसर चूकना=किसी अनुकूल या इष्ट परिस्थिति का हाथ से निकल जाना। अवसर ताकना-अनुकूल या इष्ट परिस्थिति की प्रतीक्षा में रहना। अवसर लेना=उपयुक्त समय देखकर किसी से बदला चुकाना। ३. दे० ‘अवकाश’।
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अवसर-ग्रहण  : पुं० [ष० त०] दे० ‘अवकाशग्रहण’।
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अवसर-प्राप्त  : वि० [सं० ब० स०] =अवकाश-प्राप्त।
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अवसरवाद  : पुं० [ष० त०] एक पाश्चात्य दार्शनिक सिद्धांत जिसके अनुसार ईश्वर ही कर्त्ता और ज्ञाता माना जाता है और जीव उसका निमित्त मात्र समझा जाता है। २. यह सिद्धांत कि जब जैसा अवसर आवे तब वैसा काम करके मतलब निकालना चाहिए। (अपारच्युनिज्म)।
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अवसरवादी (दिन्)  : वि० [सं० अवसरवाद+इनि] अपने लाभ या अपने स्वार्थ के लिए सदा उपयुक्त अवसर की ताक या तलाश में रहने और उससे लाभ उठानेवाला।
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अवसरिक  : वि० [सं० अवसर+ठन्-इक] बीच-बीच में या कुछ विशिष्ट अवसरों पर होता रहनेवाला। (आँकिजनल)
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अवसर्ग  : पुं० [सं० अव√सृज् (त्यागना)+घञ्] १. मुक्ति। छुटकारा। २. शिथिलता। ३. देन अथवा दंड आदि में होनेवाली कमी या छूट। (रेमिशन)।
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अवसर्जन  : पुं० [सं० अव√सृज्+ल्युट्-अन] १. छोड़ना। त्यागना। २. मुक्त या स्वतंत्र करना।
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अवसर्प  : पुं० [सं० अव√सृप् (गति)+घञ्] भेदिया। जासूस।
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अवसर्पण  : पुं० [सं० अव√सृप्+ल्युट्-अन] १. ऊपर से नीचे आना या उतरना। २. अघःपतन।
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अवसर्पिणी  : स्त्री० [सं० अव√सृप्+णिनि-ङीष्] जैन शास्त्रानुसार पतन का वह काल विभाग जिसमें रूप आदि का क्रमशः ह्रास होता है। अवरोह। विरोह। विवर्त्त।
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अवसर्पी (र्पिन्)  : वि० [सं० अव√सृप्+णिनि] नीचे आने या उतरनेवाला।
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अवसव्य  : वि० =अपसव्य।
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अवसाद  : पुं० [सं० अव√सद् (खिन्नहोना)+घञ्] [वि० अवसन्न, भू० कृ० अवसादित, कर्त्ता अवसादक] १. आशा, उत्साह, शक्ति का अभाव। २. विषाद० रंज। ३. मन या शरीर की ऐसी थकावट या शिथिलता जिसमें कुछ भी करने को जी न चाहे। (लैस्सिट्यूड) ४. पराजय। हार। ५. दुर्बलता। कमजोरी। ६. अन्त। समाप्ति। अवसादक
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अवसादन  : पुं० [सं० अव√सद्+णिच्+ल्युट्-अन] १. शिथिल या हतोत्साह होने की अवस्था या भाव। थकावट। २. विनाश। ३. विरक्ति। ४. घाव की मरहम पट्टी। (ड्रेसिंग)
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अवसादना  : अ० [सं० अवसाद] १. अवसाद या विषाद से युक्त होना। दुःखी होना। २. निराश होना। स० १. किसी को अवसाद से युक्त या पूर्ण करना। २. नष्ट करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवसादी (दिन्)  : वि० [सं० अवसाद+इनि] १. अवसाद उत्पन्न करनेवाला। २. अवसाद से युक्त फलतः शिथिल या हतोत्साह।
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अवसान  : पुं० [सं० अव√सो (नष्टकरना)+ल्युट्-अन] १. ठहरने या रुकने की क्रिया या भाव। ठहराव। विराम। २. वह बिन्दु या स्थान जहाँ किसी प्रकार के विकास, विस्तार, वृद्धि आदि का अंत, पूर्ति या समाप्ति होती है। (टर्मिनेशन) उदाहरण—(क) नहिं तव आदि मध्य अवसाना।—तुलसी। (ख) दिवस का अवसान समीप था।—हरिऔध। ३. अंत। समाप्ति। ४. सीमा। हद। ५. मरण। मृत्यु। ६. कविता या छंद का अंतिम चरण। ७. पतन। पुं० [फा० औसान] १. चेतना। ज्ञान। २. संज्ञा। होश। उदाहरण—बद्दारी बर कहि वीर अवसान संभारिन।—चंदवरदाई। पुं० =एहसान।
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अवसानक  : वि० [सं० अवसान+णिच्+ण्वुल्-अक] १. अवसान करनेवाला। २. जो अंत या सीमा तक पहुँच रहा हो। पुं० वह बिंदु या स्थान जहाँ पहुँचने पर किसी क्रिया रेखा आदि का अवसान होता हो। (टर्मिनस)
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अवसानिक  : वि० [सं० आवसानिक] अवसान (अंत या समाप्ति) से संबंध रखने या उसमें होनेवाला।
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अवसाय  : पुं० [सं० अव√सो+घञ्] १. अंत या समाप्ति। २. नाश। ३. निष्कर्ष। ४. निश्चय।
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अवसायिता  : स्त्री० [सं० अवसित=ऋद्ध]=ऋद्धि (डिं०)।
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अवसायी (यिन्)  : वि० [सं० अव√सो+णिनि] रहनेवाला। निवासी।
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अवसि  : क्रि० वि० =अवश्य।
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अवसिक्त  : वि० [सं० अव√सिच् (सींचना)+क्त] सींचा हुआ।
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अवसित  : वि० [सं० अव√सो+क्त] १. रहनेवाला। निवासी। २. जो पूर्ण या समाप्त हुआ हो। ३. अच्छी तरह पका हुआ। परिपक्य। ४. निश्चित। ५. लगा या सटा हुआ। संबद्ध। ६. किसी में वर्त्तमान या स्थित। ७. परिवर्तित।
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अवसी  : स्त्री० [सं० आवसित, प्रा० आवसिअ-पका धान्य] नवान्न आदि के लिए काटा जाने वाला धान्य या उसका फूला। वि० [सं० अव√स्वप्(सोना)+क्त] सोया हुआ।
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अवसृष्ट  : भू० कृ० [सं० अव√सृज् (त्यागना)√क्त] १. त्यागा हुआ। त्यक्त। २. दिया हुआ। दत्त। ३. निकाला हुआ।
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अवसेक  : पुं० [सं० अव√सिच्+वञ्] १. सींचना। सिचन। २. एक प्रकार का नेत्र-रोग।
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अवसेख  : वि० पुं० =अवशेष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवसेचन  : पुं० [सं० अव√सिच्+ल्युट्-अन] १. पानी से सींचना। २. पर्साजना। ३. औषध आदि के द्वारा रोगी के शरीर से पसीना निकालना। ४. शरीर का विकृत्य रूप निकालना (जैसे—जोंक या सींगी लगाकर या फसद खोलकर)।
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अवसेर  : स्त्री० [सं० अवसेरू-बाधक] १. उलझन। झंझट। २. देर। विलंब। ३. बेचैनी। विकलता। ४. चिंता। व्यग्रता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवसेरना  : स० दे० ‘अवसेर’। अ० विलंब करना। देर लगाना।
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अवसेष  : वि० =अवशेष। वि०=विशेष। उदाहरण—महि नभ सर पंजर कियो, रहिमन बल अवसेष।—रहीम। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अवसेषित  : वि० =अवशिष्ट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अवस्कंद  : पुं० [सं० अव√स्कन्द (गति)+घञ्] १. नीचे आना या उतरना। २. वह स्थान जहाँ अस्थायी रूप से तंबू आदि लगाकर सेना ठहरी हो। ३. तंबू। ४. आक्रमण। ५. बरात के ठहरने का स्थान। जनवासा।
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अवस्कंदक  : वि० [सं० अव√स्कन्द्+ण्वुल्-अक] १. नीचे उतरनेवाला। २. आक्रमण करनेवाला। ३. किसी के ऊपर कूदनेवाला।
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अवस्कंदित  : भू० कृ० [सं० अव√स्कन्द+क्त] १. जिसपर आक्रमण किया गया हो। आक्रांत। २. नीचे आया या उतरा हुआ। ३. अमान्य किया हुआ। ४. नहाया हुआ। स्नात।
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अवस्कर  : पुं० [सं० अव√कृ (विक्षेप)+अप्,सुट्] १. मल। विष्ठा। २. गोबर। ३. कूड़ा-कर्कट। ४. वह स्थान जहाँ मल-मूत्र, विष्ठा आदि फेंका जाता है। कतवारखाना।
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अवस्करक  : पुं० [सं० अवस्कर+कन्] १. कूड़ा-कर्कट, गोबर, मल-मूत्र विष्ठा आदि उठानेवाला। २. गंदे या मलिन स्थान में रहनेवाला। जैसे—गोबरैला। ३. झाड़ू।
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अवस्तार  : पुं० [सं० अव√स्तृ (आच्छादन)+घञ्] १. परदा। यवनिका। २. वह परदा जो खेमे के चारों ओर लगाया जाता है। कनात। ३. बैठने की वस्तु। जैसे—आसन, चटाई आदि।
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अवस्तु  : वि० [सं० न० त०] १. जो वस्तु न हो। २. तुच्छ। नगण्य। हीन। पुं० १. वस्तु का अभाव। २. तुच्छ, नगण्य अथवा हीन वस्तु।
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अवस्था  : स्त्री० [सं० अव√स्था (ठहरना)+अङ्-टाप्] १. किसी विशिष्ट या स्वतंत्र रूप में अस्तित्व में (वर्त्तमान या स्थित) होने का तत्त्व, भाव या स्वरूप। दशा। स्थिति। हालत। (कन्डिशन) जैसे—(क) कौमार्य का बाल्यावस्था, (ख) रोगी की अवस्था, (ग) युद्ध या शान्ति की अवस्था आदि। विशेष—(क) तात्त्विक दृष्टि से अवस्था किसी बात या वस्तु का वह वर्त्तमान रूप है जिससे वह स्थित दिखाई देती है और जिसमें समयानुसार परिवर्त्तन भी होता रहता है। यह बहुत कुछ वातावरण या परिस्थितियों पर भी आश्रित रहती है। (ख) वेदान्त में इसी आधार पर मनुष्य की चार (जाग्रति, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय) तथा निरुक्त के अनुसार पदार्थों की छः (जन्म, स्थिति, वर्धन, विपरिणयन, अपक्षय और नाश) अवस्थाएँ मानी गई है। (ग) काम-शास्त्र और साहित्य में इसी को दशा कहते हैं, जो गिनती में दस कहीं गई हैं। (विशेष दे० ‘दशा’)। २. आयु का उतना भाग जितना कथित समय तक बीत चुका हो। उमर। वय। जैसे—दस वर्ष की अवस्था में वे निकल पड़े थे। ३. किसी प्रकार की दृष्य आकृति या स्वरूप। जैसे—उनकी अवस्था दिन पर दिन बिगड़ती जा रही है। ४. भग। योनि।
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अवस्थांतर  : पुं० [सं० अवस्था-अंतर, मयू० स०] एक अवस्था में बदली हुई दूसरी अवस्था। परिवर्तित दशा या स्थिति।
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अवस्थान  : पुं० [सं० अव√स्था+ल्युट्-अन] १. आकर ठहरने या रूकने या कोई काम होने का स्थान। (स्टेशन) जैसे—रेलवे अवस्थान (रेलवे स्टेशन), आरक्षी अवस्थान (पुलिस स्टेशन) आदि। २. निवास-स्थान। ३. कोई अमूर्त्त परन्तु निश्चित या विशिष्ट स्थान या स्थिति। (स्टेज) ४. वह केन्द्र बिंदु जिसपर और सब बातें या वस्तुएँ आश्रित या स्थिर हों। ५. संपत्ति आदि पर रहने या होनेवाला किसी का अधिकार या स्वत्व।
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अवस्थापन  : पुं० [सं० अव√स्था+णिच्, पुक्+ल्युट्-अन] १. निश्चित या तै करना। २. निवास स्थान।
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अवस्थित  : भू० कृ० [सं० अव√स्था+क्त] १. किसी विशिष्ट अवस्था में आया हुआ। २. किसी विशिष्ट स्थान में ठहरा हुआ।
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अवस्थिति  : स्त्री० [सं० अव√स्था+क्तिन्] १. स्थित होने की अवस्था या भाव। २. वर्त्तमान होने की अवस्था या भाव। वर्त्तमानता।
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अवस्फूर्ज  : पुं० [सं० अव√स्फूर्ज (वज्र का शब्द)+घञ्] बादलों की गड़गड़ाहट या गरज।
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अवस्यंदन  : पुं० [सं० अव√स्यनद् (बहना)+ल्युट्-अन] १. टपकना या चूना। २. रसना।
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अवस्यमेव  : अव्य० [सं० अवश्यम्-एव, द्व० स०] हर परिस्थिति में अवश्य और निश्चित रूप से।
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