शब्द का अर्थ
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					स्वभाव					 :
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					पुं० [सं०] [वि० स्वाभाविक] १. अपना या निजी भाव। २. किसी पदार्थ का वह क्रियात्मक गुण या विशेषतता जो उसमें प्राकृतिक रूप से सदा वर्तमान रहती है। खासियत। जैसे–अग्नि का स्वभाव पदार्थों को जलाना और जल का स्वभाव उन्हें ठंडा करना है। ३. जीव–जन्तुओं और प्राणियों का वह मानसिक रूप या स्थिति, जो उसकी समस्त जाति में जन्मजात होती और सदा प्रायः एक ही तरह काम करती हुई दिखाई देती है। प्रकृति। (नेचर उक्त दोनों अर्थों में) जैसे–चीते, भालू और शेर स्वभाव से ही हिंसक होते हैं। ४. मनुष्य के मन में वह पक्ष, जो बहुत कुछ जन्मजात तथा प्राकृतिक होता है और जो उसके आचार–व्यवहार आदि का मुख्य रूप से प्रवर्तक होता और उसके जीवन में प्रायः अथवा सदा देखने में आता है। मिजाज (डिस्पोजीशन)। जैसे–वह स्वभाव से ही क्रोधी (चिड़चिड़ा दयालु और शांत) है। ५. आदत। बान। (हैबिट) जैसे–तुम्हारा तो सबसे लड़ने का स्वभाव पड़ गया है। क्रि० प्र०–पड़ना।–होना।				 | 
			
			
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					स्वभाव-कृपण					 :
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					पुं० [सं०] ब्रह्मा का एक नाम।				 | 
			
			
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					स्वभाव-दक्षिण					 :
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					वि० [सं०] जो स्वभाव से ही मीठी–मीठी बातें करने में निपुण हो।				 | 
			
			
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					स्वभाव-सिद्ध					 :
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					वि० [सं०] स्वभाव से ही होनेवाला। प्राकृतिक। स्वाभाविक सहज।				 | 
			
			
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					स्वभावज					 :
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					वि० [सं०] जो स्वभाव या प्रकृति से उत्पन्न हुआ हो। प्राकृतिक। स्वाभाविक। सहज।				 | 
			
			
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					स्वभावज अलंकार					 :
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					पुं० [सं०] साहित्य में संयोग श्रृंगार से प्रसंग में स्त्रियों की कुछ विशिष्ट आकर्षक या मोहक अंग भंगियां और बातें, जिनसे उनकी आंतरिक भावनाएँ प्रकट होती है, और इसीलिए जिनकी गिनती उनके अलंकारों में होती है। लोक में इसी तरह की बातों को हाव कहते हैं। दे० हाव। विशेष–यह नायिकाओं के सात्त्विक अलंकारों के तीन भेदों में से एक है।				 | 
			
			
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					स्वभावतः (तस्)					 :
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					अव्य. [सं०] स्वभाव के फलस्वरूप। स्वाभाविक अर्थात् प्रकृतिजन्य रूप से। जैसे–उसे इस प्रकार झूठ बोलते देखकर मुझे स्वभावतः क्रोध आ गया।				 | 
			
			
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					स्वभाविक					 :
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					वि० =स्वाभाविक।				 | 
			
			
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					स्वभावी					 :
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					वि० [सं०स्वभाविन्] [स्त्री० स्वभाविनी] १. स्वभाव वाला। जैसे–उग्र स्वभावी। क्षमा-स्वभावी। २. मनमाना आचरण करनेवाला। ३. मनमौजी।				 | 
			
			
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					स्वभावोक्ति					 :
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					स्त्री० [सं०] साहित्य में एक प्रकार का अलंकार जिसमें किसी वस्तु या व्यक्ति की स्वभाविक क्रियाओं,गुणों विशेषताओं आदि का ठीक उसी रूप में वर्णन किया जाता है जिस रूप में वे कवि को दिखाई देती है। यथा–बिहँसति सी दिये कुच आँचर बिच बाँह। भीजे पट तट को चली न्हान सरोवर माँह।–बिहारी। विशेष–इसमें किसी जातिवाचक पदार्थ के स्वाभाविक गुणों का वर्णन होता है,इसीलिए कुछ लोग इस अलंकार को जाति भी कहते हैं। कुछ आचार्यों ने इसके सहज और प्रतिज्ञाबद्ध नाम के दो भेद भी माने हैं।				 | 
			
			
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