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साध  : स्त्री० [सं० श्रद्धा=प्रबल वासना] १. ऐसी अभिलाषा या आकांक्षा जो बहुत समय से मन में हो और जिसकी पूर्ति के लिए व्यक्ति उत्कंठित हो। मुहा०—(किसी बात की) साध न रहने देना=सब प्रकार से इच्छा पूरी कर लेना। कुछ कमी या कसर न रखना। उदा०—व्याध अपराध की साध राखी कहा, पिंगलै कौन मति भक्ति भई।—तुलसी। साध राधना=अभिलाषा पूरी करना या होना। २. गर्भवती स्त्री के मन में प्राकृतिक रूप से उत्पन्न होनेवाली अनेक प्रकार की अभिलाषाएँ और इच्छाएँ। दोहद। ३. स्त्री के गर्भवती होने के सातवें महीनें में होनेवाली एक प्रकार की रसम। पुं० [सं० साधु] १. साधु। संत। महात्मा। भला आदमी। सज्जन। २. उत्तर भारत का एक प्रसिद्ध संप्रदाय जिस पर आगे चलकर कबीर पंथ का विशेष प्रभाव पड़ा था। ३. उक्त संप्रदाय का अनुयायी जो ईश्वर के सिवा और किसी को प्रणाम, नमस्कार आदि का अधिकारी नहीं समझता, और इसलिए व्यक्तियों के सामने सिर नहीं झुकाता। वि० [सं० साधु उत्तम। अच्छा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साधक  : वि० [सं०√साध् (सिद्ध होना)+ण्वुल्—अक] [स्त्री० साधिका] १. साधना करनेवाला। २. साधनेवाला। ३. जो साध्य या ध्येय की प्राप्ति में साधन बना हो फलतः सहायक हुआ हो। पुं० वह जो आध्यात्मिक या धार्मिक क्षेत्र में फल-प्राप्ति के उद्देश्य से किसी प्रकार साधना में लगा हुआ हो। जैसे—तांत्रिक, योगी, तपस्वी आदि। २. कोई ऐसी चीज या बात जिससे कोई कार्य पूरा या सिद्ध करने में सहायता मिलती हो। जरिया। वसीला। साधन। ३. वह जो किसी काम या बात में अनुकूल रहकर सहायक होता हो। ४. वह जो ऊपर से तटस्थ रहकर, परन्तु मन में कपट रखकर किसी का दुष्ट उद्देश्य सिद्ध करनें में सहायक होता हो। जैसे—वे दोनों सिद्ध साधक बनकर मेरे पास आये थे। पद—सिद्ध-साधक। (देखें) ५. न्याय में, वह लक्षण जिसके आधार पर कोई बात सिद्ध करने का प्रयत्न किया जाता है। हेतु। ६. भूत-प्रेत आदि को साधने या अपने वश में करनेवाला। ओझा। ७. पुत्रजीव नामक वृक्ष। ८. दमनक। दौना। ९. पित्त।
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साधकता  : स्त्री० [सं० साधक+तल्—टाप्] १. साधक होने की अवस्था या भाव। २. उपयुक्तता। ३. उपयोगिता।
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साधकत्व  : पुं० [पुं० साधक+त्व] १. साधकता। २. जादू या बाजीगरी। ३. सिद्धि।
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साधन  : पुं० [सं०] [वि० साधनिक, साध्य, भू० कृ० साधित, कर्ता साधक] १. किसी कार्य का आरंभ करके उसे सिद्ध या पूरा करना। २. आज्ञा, निर्णय आदि के अनुसार किसी काम या बात को उचित और पूरा रूप देना। कार्यान्वित करना। पालन करना। ३. विधिक क्षेत्र में, आदेशों, लेख्यों, सूचनाओं आदि के अनुसार ठीक तरह से काम पूरा करना। निष्पादन। पालन। ४. अपने कार्यों का निर्वाह या अपने पद के कर्त्तव्यों आदि का पालन करना। ५. कोई चीज तैयार करने का सामान। सामग्री। ६. कोई ऐसी बात जिससे किसी प्रकार की क्षति, त्रुटि, दोष आदि का परिहार होता हो। उपचार। प्रतिविधि। ७. कोई काम पूरा करने में सहायता देनेवाली कोई चीज या सब चीजें। उपकरण। (इन्स्ट्रमेंट) ८. कोई ऐसी चीज या बात जिससे कुछ कर सकने की शक्ति या समर्थता आती हो। (मीन्स) जैसे—युद्ध करने के लिए सैनिक साधन। ९. वे सब जिनके सहारे कोई काम पूरा होता हो अथवा आवश्यकता पड़ने पर जिनका उपयोग किया जा सकता हो। (रिसोसेंज) १॰. कोई ऐसा तत्त्व या वस्तु जिसके द्वारा या सहायता से काम पूरा होता हो। (एजेन्सी) ११. वैद्यक में, औषध बनाने के लिए धातुएँ आदि फूँकने और शोधने का काम। १२. उपाय। तरकीब। युक्त। १३. मदद। सहायता। १४. कारण। सबब। १५. धन-संपत्ति। दौलत। १६. पदार्थ। वस्तु। १७. प्रमाण। सबूत। १८. जाना। गमन। १९. उपासना। २॰. संधान। २१. मृतक का अग्नि-संस्कार। दाह-कर्म। २२. दे० ‘साधना’।
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साधन-क्रिया  : स्त्री० [सं०] समापिका क्रिया। (दे०)
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साधनता  : स्त्री० [सं०] १. साधन का धर्म या भाव। २. साधन की क्रिया। साधना।
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साधनहार  : वि० [सं० साधन+हिं० हार (प्रत्य०)] १. साधने करने या साधनेवाला। साधक। २. जो साध या सिद्ध किया जा सके। साध्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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साधना  : स्त्री० [सं०] १. कोई कार्य सिद्ध या संपन्न करने की क्रिया। साधन। २. ऐसी आराधना तथा उपासना जो विशेष कष्ट सहन, परिश्रम तथा मनोयोगपूर्वक बहुत दिनों तक करनी पड़ती हो, अथवा जिसमें किसी विशिष्ट प्रकार की सिद्ध प्राप्त होती हो। जैसे—तंत्र या योग की साधना। ३. उक्त के आधार पर किसी बहुत बड़े तथा महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए विशेष त्याग, परिश्रम तथा मनोयोगपूर्वक बहुत दिनों तक किया जानेवाला प्रयत्न या प्रयास। जैसे—अधिकतर बड़े बड़े आविष्कार विशिष्ट साधना करने से होते हैं। स० [सं० साधना] १. विशेष परिश्रम तथा प्रयत्नपूर्वक निरंतर कोई कार्य करते हुए उसमें पारंगत या सिद्धहस्त होना। जैसे—योग साधना। २. किसी काम या बात का इस प्रकार अभ्यास करना कि वह ठीक तरह से, बहुत सहज में स्वाभाविक रूप से सम्पादित होने लगे। जैसे—दम साधना=दम या साँस रोकने का अभ्यास करना। ३. किसी चीज को ऐसी स्थिति में लाना कि वह ठीक तरह से और संतुलित रूप से अपने स्थान पर रहकर पूरा काम कर सके। जैसे—(क) गुड्डी या पतंग साधना=उसमें चिप्पी या पुल्ला लगाकर उसे संतुलित करना। (ख) तराजू या बटखरा साधना=यह देखना कि तराजू या बटखरा ठीक या पूरा तौलता है या नहीं। (ग) बाइसिकिल पर चढ़ने या रस्से पर चलने में शरीर साधना=शरीर को ऐसी अवस्था में रखना कि वह इधर-उधर गिरने न पाए। ४. शुद्ध या सत्य प्रमाणित करना। ५. निश्चित या पक्का करना। ठहराना। ६. किसी को अपनी ओर मिलाकर अपने अनुकूल या वश में करना। उदा०—गाधिराज को पुत्र साधि सब मित्र शत्रु बल।—केशव। स० [स० संधान, पु० हिं० संधानना] निशान लगाना। संधान करना।
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साधनिक  : वि० [स०] १. साधन-संबंधी। साधन का। २. किसी या कई प्रकार के साधनों से युक्त या सम्पन्न। ३. किसी राज्य या संस्था के प्रबंध, शासन या कार्य-साधन से सम्बन्ध रखनेवाला। कार्यकारी। अधिशासी। पुं० प्राचीन भारत में, एक प्रकार के राज-कर्मचारी जो सेना आदि के किसी उप-विभाग के व्यवस्थापक होते थे।
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साधनी  : स्त्री० [सं० साधन] १. लोहे या लकड़ी का एक औजार जिससे दीवार या जमीन की सतह की सीध नापते हैं। २. राज। मेमार। उदा०—बोलि साधनी-पुंज मंजु मंडप रचवायौ।—रत्ना०।
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साधनीय  : वि० [सं०] १. जिसका साधन हो सके। २. जिसकी साधना होने को हो। ३. जो साधना से प्राप्त किया जा सकता हो।
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साधयितव्य  : वि० [सं०√सिध् (गत्यादि)+णिच्-साधादेश, तव्य] (कार्य) जिसका साधन हो सकता हो।
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साधयिता  : वि० [सं०√सिध् (गत्यादि)+णिच्-साधादेश-तृच्] जो साधन करता हो। साधन करनेवाला। साधक।
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साधर्मिक  : पुं० [सं० सधर्म-ष० स०—ठक्-इक] किसी की दृष्टि से उसी के धर्म का दूसरा अनुयायी। सधर्मी।
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साधर्म्य  : पुं० [सं० सधर्म+ष्यञ्] समान धर्म से युक्त होने की अवस्था, गुण या भाव। एकधर्मता। समान-धर्मता। तुल्य-धर्मता। जैसे—इनमें कुछ भी साधर्म्य नहीं है।
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साधस  : पुं० दे० ‘साध्वस’।
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साधार  : वि० [सं०] १. (रचना) जो आधार या नींव पर स्थित हो। २. कथन, विचार आदि जिसका कुछ या कोई आधार हो। तथ्यपूर्ण।
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साधारण  : वि० [सं० साधारण, अव्य० स०—अण्] १. जैसा साधारणतः जब जगह पाया जाता अथवा होता हो। आम। (यूजुअल) २. जिसमें औरों की अपेक्षा कोई विशेषता न हो। (कॉमन) ३. प्रकार, प्रकृति, रूप आदि के विचार से जैसा सब जगह होता हो, वैसा। प्रकृत। सहज। ४. जिसमें कोई बहुत बड़ी उत्कृष्टता या विशेषता न हो, फिर भी जो अच्छे या बढ़िया से हलके दरजे का हो। मामूली। (आर्डिनरी) ५. जो प्रायः सभी लोगों के करने या समझने के योग्य हो। सरल। सहज। सुगम। ६. तुल्य। सदृश। समान। ७. दे० ‘सामान्य’। पुं० १. भावप्रकाश के अनुसार ऐसा प्रदेश जहाँ जंगल अधिक हों, रोग अधिक होते हों, और जाड़ा तथा गरमी भी अधिक पड़ती हो। २. उक्त प्रकार के देश का जल।
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साधारण गांधार  : पुं० [सं० कर्म० स०] संगीत में, एक प्रकार का विकृत स्वर जो वजिका श्रुति से आरम्भ होता है। इसमें तीन श्रुतियाँ होती हैं।
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साधारण धर्म  : पुं० [सं०] १. ऐसा कर्त्तव्य, कर्म या कार्य जो साधारणतः और समान रूप से सबके के लिए बना हो। २. ऐसी कर्तव्य, कर्म या धर्म जिसका विधान किसी वर्ग के सब लोगों के हुआ हो। ३. ऐसा गुण, तत्त्व या धर्म जो साधारणतः किसी प्रकार के सब पदार्थों आदि में समान रूप से पाया जाता हो। विशेष—साधारणीकरण ऐसे ही गुणों, तत्त्वों के आधार पर किया जाता है।
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साधारण निर्वाचन  : पुं० [सं०] वह निर्वाचन जिसमें हर चुनाव क्षेत्र से प्रतिनिधि चुने जाते हों। आम-चुनाव। (जनरल इलेक्शन)
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साधारण वाक्य  : पुं० [सं०] व्याकरण में, तीन प्रकार के वाक्यों में से पहला जो प्रायः बहुत छोटा होता है और जिसमें एक कर्ता और एक क्रिया (सकर्मक होने पर क्रिया के साथ कर्म भी) होती है। (वाक्य के शेष दो प्रकार मिश्र और संयुक्त कहलाते हैं)।
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साधारणतः  : अव्य० [सं०]=साधारणतया।
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साधारणतया  : अव्य० [सं० साधारण+तल्—टाप्-टा] साधारण रूप से। आमतौर पर। साधारणतः।
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साधारणता  : स्त्री० [सं० साधारण] साधारण होने की अवस्था, गुण धर्म या भाव।
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साधारणीकरण  : पुं० [सं०] [भू० कृ० साधारणीकृत] १. हमारे प्राचीन साहित्य में, रस-निष्पत्ति की वह स्थिति जिसमें दर्शक या पाठक कोई अभिनय देखकर या काव्य पढ़कर उससे तादात्मय स्थापित करता हुआ उसका पूरा-पूरा रसास्वादन करता है। विशेष—यह वही स्थिति है जिसमें दर्शक या पाठकों के मन में ‘मैं’ और ‘पर’ का भाव दूर हो जाता है और वह अभिनय या काव्य के पात्रों या भावों में विलीन होकर उनके साथ एकात्मता स्थापित कर लेता है। २. आज-कल एक ही प्रकार के बहुत से विशिष्ट गुणों, तत्त्वों आदि के आधार पर किसी विषय में कोई ऐसा साधारण नियम या सिद्धांत स्थिर करना जो उन सब गुणों या तत्त्वों पर समान रूप से प्रयुक्त हो सके। ३. किसी सामान्य गुण या धर्म के आधार पर अनेक गुणों, तत्त्वों आदि को एक तल रक एक वर्ग में लाना। गुणों आदि के आधार पर समानता निरूपित करना। (जेनरलाइज़ेशन)
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साधारण्य  : पुं० [सं० साधारण+ष्यञ्]=साधारणता।
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साधिका  : वि० स्त्री० [सं०√सिध् (गत्यादि)+षिच्—साधादेश-ण्वुल्—अक, टाप्] सं० ‘साधक’ का स्त्री०। स्त्री० गहरी नींद।
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साधिकार  : अव्य० [सं०] १. अधिकारपूर्वक। २. अधिकारपूर्वक रूप से। (ऑथॉरिटेटिव्ली) वि० १. जिसे कोई अधिकार प्राप्त हो। २. अधिकारपूर्वक या अधिकारिक रूप से कहा या किया हुआ। (ऑथॉरिटेटिव) जैसे—साधिकार घोषणा।
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साधित  : भू० कृ० [सं०√सिध् (गत्यादि)+णिच्-साधादेश-क्त] १. जिसका साधन किया गया हो। सिद्ध किया गया हो। सिद्ध किया हुआ। २. (काम) जो पूरा सिद्ध किया गया हो। ३. जिसे दंड दिया गया हो। दंडित। ४. शुद्ध किया हुआ। शोधित। ५. नष्ट किया हुआ। ६. (ऋण या देन) जो चुका दिया गया हो। शोधित।
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साधित्र  : पुं० [सं०] कोई ऐसी वस्तु या साधन जिसकी साहयता से कोई काम पूरा किया जाता हो। उपकरण। (एपरेटस)
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साधी (धिन्)  : वि० [सं०√गत्यादि+णिनि—साधादेश] साधक। वि० [हिं० साधक या साधना=सिद्ध करना] किसी के दुष्ट उद्देश्य की सिद्धि में सहायक होनेवाला। साधक। उदा०—जो सो चोर, सोई साधी।—कबीर।
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साधु  : वि० [सं०] [भाव० साधुता, स्त्री० साध्वी] १. अच्छा। भला। २. जिसमें कोई आपत्तिजनक बात या दोष न हो; फलतः ग्राह्य और प्रशंसनीय। ३. सच्चा। ४. चतुर। निपुण। होशियार। ५. उपयुक्त। योग्य। ६. उचित। मुनासिब। वाजिब। अव्य० १. बहुत अच्छा किया या बहुत अच्छा हुआ। मुहा०—साधु साधु कहना=किसी के कोई अच्छा काम करने पर उसकी बहुत प्रशंसा करना। २. बहुत ठीक, ऐसा ही किया जाय अथवा ऐसा ही हो। ३. बस बहुत हो चुका, अब रहने दो। पुं० १. वह जिसका जन्म उत्तम कुल में हुआ हो। कुलीन। आर्य। २. वह जिसकी कोई साधना, विशेषतः आध्यात्मिक या धार्मिक साधना पूरी हो चुकी हो। सिद्ध। ३. वह धार्मिक, परपोकारी और सदाचारी व्यक्ति जो धर्म, सत्य आदि का उपदेश करके दूसरों का कल्याण करता हो। महात्मा। संत। ४. वह जो सांसारिक प्रपंच छोड़कर त्यागी और विरक्त हो गया हो। ५. बहुत ही शांत भाव से से रहनेवाला सदाचारी और सुशील व्यक्ति। बहुत ही भला आदमी। सज्जन। ६. वणिक। व्यापारी। ७. वह जो लोगों को धन आदि उधार देकर उनके ब्याज या सूद से अपना निर्वाह करता हो। महाजन। साहु। ८. जैन यति, मुनि या साधु। ९. जि देवय १॰. दौना नामक पौधा। दमनक। ११. वरुण वृक्ष।
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साधु-वृत्त  : वि० [सं०] उत्तम स्वभाव और चरित्रवाला। साधु आचरण करनेवाला।
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साधु-वृत्ति  : स्त्री० [सं०] उत्तम और श्रेष्ठ आचरण तथा वृत्ति।
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साधु-साधु  : अव्य० [सं०] साधुवाद का सूचक पद। धन्य-धन्य।
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साधुकारी (रिन्)  : वि० [सं० साधु√कृ (करना)+णिनि] जो उत्तम कार्य करता हो। अच्छे काम करनेवाला।
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साधुज  : वि० [सं०] जिसका जन्म उत्तम कुल में हुआ हो। कुलीन।
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साधुजात  : वि० [सं०] १. सुन्दर। खूबसूरत। २. चमकीला। उज्जवल। ३. साफ। स्वच्छ। ४. कुलीन।
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साधुता  : स्त्री० [सं० साधु+तल्—टाप्] १. साधु होने की अवस्था, गुण, धर्म या भाव। साधुपन। २. भलमनसाहत। सज्जनता। ३. नेकी। भलाई। ४. सीधापन। सिधाई।
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साधुत्व  : पुं० [सं० साधु+त्व]=साधुता।
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साधुमती  : स्त्री० [सं० साधु-मतु, ङीप्] तांत्रिकों की एक देवी। ३. दसवीं पृथ्वी। (बौद्ध)
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साधुवाद  : पुं० [सं०] १. किसी के कोई उत्तम कार्य करने पर ‘‘साधु साधु’’ कहकर उसकी प्रशंसा करना। २. उक्त रूप में की हुई प्रशंसा या कही हुई बात।
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साधू  : पुं० [सं० साधु] १. महात्मा और संत पुरुष। २. विरक्त और संसार त्यागी व्यक्ति।
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साधो  : पुं० [सं० साधु] हिं० ‘साधु’ का सम्बोदन कारक का रूप। जैसे—कहे कबीर सुनो भई साधो।—कबीर।
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साध्य  : वि० [सं०] १. (कार्य) जिसका साधन हो सके। जो सिद्ध या पूरा किया जा सके। जैसे—यह कार्य सबके लिए साध्य नहीं है। २. आसान। सहज। सुगम। ३. तर्क या न्याय में, (पक्ष या विषय) जो प्रमाणित किया जाने को हो। ४. वैद्यक में, (रोग) जो चिकित्सा के द्वारा दूर किया जा सकता हो। ५. (काम या बात) जिसका प्रतिकार हो सकता हो अथवा किया जा सकता हो। ६. (विषय) जो प्रयत्न करने पर जाना जा सकता हो। पुं० १. कोई काम पूरा कर सकने की योग्यता या शक्ति। सामर्थ्य। जैसे—यह काम हमारे साध्य के बाहर है। २. न्याय में, वह पदार्थ जिसका अनुमान किया जाय। जैसे—पर्वत से धुँआ निकलकता है अतः वहाँ अग्नि है। यहाँ अग्नि साध्य है, जिसका अनुमान किया गया है। ३. इक्कीसवाँ योग। (ज्यो०) ४. गुरु से लिये जानेवाले चार प्रकार के मंत्रों में से एक प्रकार का मंत्र। (तंत्र) ५. एक प्रकार के गण देवता जिनकी संख्या १२ है। ६. देवता।
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साध्य प्रकाश  : पुं० [सं०] सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय दिखलाई पड़नेवाला धुँधला प्रकाश।
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साध्यता  : स्त्री० [सं० साध्य+तल्—टाप्] साध्य होने की अवस्था, गुण या भाव।
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साध्यवसान रूपक  : पुं० [सं०] साहित्य में, रूपक अलंकार का वह प्रकार या भेद जो साध्यवासना लक्षणा से युक्त होता है। (एलिगोरी)
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साध्यवसानिका  : स्त्री०=साध्यवसाना (लक्षणा)।
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साध्यवसाय  : वि० [सं० स० ब०] (उक्ति या कथन) जो साध्यवसाना लक्षणा से युक्त हो।
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साध्यवान् (वत्)  : वि० [सं० साध्य+मतुप् म=व] (व्यवहार में, वह पक्ष) जिस पर अपना कथन या मत प्रमाणित करने का भार हो।
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साध्यवासना  : स्त्री० [सं०] साहित्य में, लक्षणा का वह प्रकार या भेद जिसमें स्वयं उपमान में उपमेय का अध्यवसाय या तादात्म्य किया जाता अर्थात् उपमेय को बिलकुल हटाकर केवल उपमान इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है कि उपमेय से उसका कोई अंतर या भेद नहीं रह जाता। जैसे—किसी परम मूर्ख विषय में कहना—यह तो गधा (या बैल) है। उदा०—अद्भुत् एक अनूप बाग। जुगल कमल पर गज क्रीडत है, तापर सिंह करत अनुराग।...फल पर पुहुप, पहुप पर पल्लव ता पर सुक, पिक, मृग-मद काग। इसमें केवल उपमानों का उल्लेख करके राधा के सब अंगों के सौंदर्य का वर्णन किया है।
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साध्यसम  : पुं० [सं०] भारती नैयायिकों के अनुसार पाँच प्रकार के हेत्वाभासों में से एक, जिसमें किसी हेतु को साध्य के ही समान सिद्ध करने की आवश्यकता होती है। जैसे—यदि कहा जाय ‘‘छाया भी द्रव्य है क्योंकि उसमें द्रव्यों के ही समान गति होती है।’’ तो यहाँ यह सिद्ध करना आवश्यक होगा कि स्वतः छाया में गति होती है।
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साध्याभक्ति  : स्त्री०=परा-भक्ति। (देखें)
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साध्र  : स्त्री०=साध (कामना)। उदा०—रमण रोक मनि साध्र रही।—प्रिथीराज।
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साध्वस  : पुं० [सं०] १. भय। डर। २. घबराहट। ३. बेचैनी। विकलता। ४. प्रतिभा।
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साध्वाचार  : पुं० [सं० उपमि० स०] १. साधुओं का सा आचार और व्यवहार। २. शिष्टाचार।
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साध्वी  : वि० [सं० साधु-ङीप्] १. भली तथा शुद्ध आचरणवाली (स्त्री)। २. परित्याग। पतिव्रता। पद—सती-साध्वी। (दे०) स्त्री० मेदा (ओषधि)।
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