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विष्ट  : भू० कृ० [सं√विश् (प्रवेश करना)+क्त] १. [भाव० विष्टि] १. घुसा हुआ। २. भरा हुआ। ३. युक्त।
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विष्टप-हारी  : पुं० [सं० विष्टप√हृ (हरण करना)+णिनि, ष० त०] १. भुवन। लोक। २. पात्र। बरतन।
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विष्टंभ  : पुं० [सं० वि√स्तम्भ (रोकना)+घञ्] १. अच्छी तरह से जमाना या स्थिर करना। २. रोकना। ३. बाधा। रुकावट। ४. आक्रमण। चढ़ाई। ५. अनाह या विबंध नामक रोग।
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विष्टंभी (भिन्)  : वि० [सं० वि√स्तम्भ (रोकना)+णिनि, दीर्घ, न-लोप] कब्जियत करनेवाला पदार्थ।
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विष्टय  : पुं० [सं०√विश्+कपन्, सुट्] १. स्वर्ग-लोक। २. जगह। स्थान।
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विष्टर  : पुं० [सं० वि√स्तृ+अप्, षत्व] १. आक। मदार। २. पेड़। वृक्ष। ३. आसन विशेषतः पीठ। ४. कुश का आसन।
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विष्टरश्रवा (वस्)  : पुं० [सं० विष्टर+श्रवस्, ब० स०] १. विष्णु। २. कृष्ण।
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विष्टि  : स्त्री० [सं०√विष् (प्याप्त रहना आदि)+क्तिन्] १. ऐसा परिश्रम जिसका पुरस्कार न दिया जाता हो। २. व्यवसाय। पेशा। ३. प्राप्ति। ४. वेतन। ५. फलित ज्योतिष के ग्यारह करणों में से सातवाँ करण जिसे विष्टिभद्रा भी कहते हैं। ६. एक प्रकार का पौराणिक व्रत।
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विष्टि-भार  : पुं० [सं० ष० त०] बेगारी का भार। उदाहरण—बोले ऋषि भुगतेंगे हम सह विष्ट भार।—मैथिलीशरण गुप्त।
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विष्टिकर  : पुं० [सं० विष्टि+कृ (करना)+अप्, ष० त०] १. प्राचीन काल के राज्य का वह बड़ा सैनिक कर्मचारी जिसे अपनी सेना रखने के लिए राज्य की ओर से जागीर मिला करती थी। २. अत्याचारी। जालिम।
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