शब्द का अर्थ
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					भिक्षा					 :
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					स्त्री० [सं० भिक्ष्+अ+टाप्] १. असहाय या निरुपाय अवस्था में उदरपूर्ति के लिए लोगों से दीनतापूर्वक अपने निर्वाह के लिए हाथ फैलाकर अन्न, कपड़ा, पैसा आदि माँगने का काम या वृत्ति। २. इस प्रकार माँगने पर प्राप्त होनेवाला अन्न, कपड़ें पैसे आदि। भीख। ३. विशेष अनुग्रह की प्राप्ति के लिए किसी से दीनतापूर्वक की जानेवाली याचना। ४. नौकरी।				 | 
			
			
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					भिक्षा-चर्या					 :
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					स्त्री० [ष०त०] भिक्षा माँगने के लिए इधर-उधर घूमना।				 | 
			
			
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					भिक्षा-पात्र					 :
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					पुं० [सं० मध्य० स०] वह पात्र जिसमें भिखमंगे भीख माँगते है। वि० (व्यक्ति) जिसे भिक्षा देना उचित हो। भिक्षा प्राप्त करने का अधिकारी।				 | 
			
			
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					भिक्षाक					 :
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					पुं० =भिक्षुक।				 | 
			
			
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					भिक्षाचर					 :
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					पुं० [सं० भिक्षा√चर् (प्राप्ति)+ट] भिक्षुक।				 | 
			
			
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					भिक्षाटन					 :
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					पुं० [सं० भिक्षा+अटन, मध्य० स०] भिखमगों या साधु संन्यासियों का भिक्षा प्राप्ति के लिए लोगों के द्वार पर जाना।				 | 
			
			
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					भिक्षान्न					 :
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					पुं० [सं० भिक्षा+अन्न, मध्य० स०] भिक्षा में मिला हुआ अन्न।				 | 
			
			
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					भिक्षार्थी (र्थिन्)					 :
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					वि० [सं० भिक्षार्थ+इनि] भीख चाहने या माँगनेवाला। पुं० भिखारी।				 | 
			
			
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					भिक्षार्ह					 :
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					वि० [सं० भिक्षा√अर्ह् (योग्य होना)+अच्] जिसे भिक्षा दी जा सकती हो।				 | 
			
			
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					भिक्षासी (शिन्)					 :
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					वि० [सं० भिक्षा√अश् (खाना)+णिनि] भिक्षाजीवी।				 | 
			
			
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