शब्द का अर्थ
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दृढ़ :
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वि० [सं०√दृह् (मजबूत होना)+क्त] १. जो शिथिल या ढीला न हो। प्रगाढ़। जैसे—दृढ़बंधन। २. जो जल्दी टूट-फूट न सकता हो। पक्का। मजबूत। ३. बलवान और हृष्ट-पुष्ट। ४. जो जल्दी अपने स्थान से इधरः-उधर या विचलित् न हो। जैसे—दृढ़ मनुष्य, दृढ़ विश्वास। ५. जिसमें किसी प्रकार का परिवर्तन या हेर-फेर न हो सकता हो। ध्रुव। जैसे—दृढ़ निश्चय। पुं० १. लोहा। २. विष्णु। ३. धृतराष्ट्र का एक पुत्र। ४. तेरहवें मनु का एक पुत्र। ५. संगीत में, सात प्रकार के रूपकों में से एक। ६. गणित में, ऐसा अंक जिसे विभाजित करने पर पूरे या समूचे विभाग न हो सकें, केवल खंडित विभाग हों। ताक अदद। जैसे—३, १, ७, २५ आदि। |
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दृढ़-कंटक :
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पुं० [ब० स०] क्षुद्रफलक वृक्ष। |
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दृढ़-कर्मा (र्मन्) :
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वि० [ब० स०] जो अपना काम दृढ़ता-पूर्वक अर्थात् धैर्य और स्थिरता से करता हो। |
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दृढ़-कांड :
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पुं० [ब० स०] १. बाँस। २. रोहिस घास। |
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दृढ़-कांड़ा :
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स्त्री० [ब० स०, टाप्] पातालगारुड़ी लता। छिरेंटा। |
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दृढ़-क्षुरा :
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स्त्री० [ब० स० टाप्] वल्वजा तृण। सागे-बागे। |
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दृढ़-गात्रिका :
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स्त्री० [ब० स०, कप्, इत्व] १. राब। २. कच्ची चीनी। खाँड़। |
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दृढ़-ग्रंथि :
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वि० [ब० स०] जिसकी गाँठें मजबूत हों। पुं० बाँस। |
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दृढ़-चेता (तस्) :
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वि० [ब० स०] दृढ़ या पक्के विचारों अथवा संकल्पों वाला। |
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दृढ़-च्युत् :
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पुं० [सं०] परपुरंजय नामक राजा की कन्या के गर्भ से उत्पन्न अगस्त्य मुनि के एक पुत्र। |
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दृढ़-तरु :
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पुं० [कर्म० स०] धव का पेड़। |
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दृढ़-तृण :
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पुं० [ब० स०] मूँज नाम की घास। |
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दृढ़-तृणा :
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स्त्री० [ब०स०, टाप्] वल्वजा तृण। |
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दृढ़-त्वच् :
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वि० [ब० स०] जिसकी त्वचा या छाल कड़ी हो। पुं० ज्वार का पौधा। |
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दृढ़-दंशक :
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पुं० [कर्म० स० ] एक प्रकार का जल-जंतु। |
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दृढ़-दस्यु :
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पुं० [सं०] एक ऋषि जो दृढ़च्यूत के पुत्र थे। |
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दृढ़-धन :
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पुं० [ब० स०] शाक्य मुनि। बुद्घ। |
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दृढ़-धन्वा (न्वन्) :
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पुं० [ब० स०, अनङ् आदेश] वह जो धनुष चलाने में दृढ़ हो या जिसका धनुष दृढ हो। |
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दृढ़-निश्चय :
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वि० [ब० स०] अपने निश्चय अर्थात् विचार या संकल्प पर दृढतापूर्वक अड़ा या जमा रहनेवाला। जो अपने निश्चय से जल्दी न टलता हो। |
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दृढ़-नीर :
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पुं० [ब० स०] नारियल, जिसके भीतर का जल धीरे-धीरे जम जाता है। |
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दृढ़-नेत्र :
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पुं० [ब० स०] विश्वामित्र जी के चार पुत्रों में से एक। (वाल्मीक) |
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दृढ़-पत्र :
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वि० [ब० स०] जिसके पत्ते दृढ़ या मजबूत हों। पुं० बाँस। |
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दृढ़-पत्री :
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स्त्री० [ब० स०, ङीष्] वल्वजा तृण। सागे-बागे। |
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दृढ़-पद :
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पुं० [ब० स०] तेइस मात्राओं का एक प्रकार का मात्रीक छंद। उपमान। |
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दृढ़-पाद :
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वि० [ब० स० ] अपने विचारों का पक्का। |
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दृढ़-पादा :
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स्त्री० [ब० स०, टाप्] यवतिक्ता। |
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दृढ़-पादी :
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स्त्री० [ब० स० ङीष्] भूम्यामलकी। भूआँवला। |
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दृढ़-प्रतिज्ञ :
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वि०[ब० स०] जो अपनी प्रतीज्ञा पर अटल रहे। अपनी प्रतीज्ञा पूरी करनेवाला। |
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दृढ़-प्ररोह :
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पुं० [ब० स०] बट। बरगद। |
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दृढ़-फल :
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पुं० [ब० स०] नारियल। |
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दृढ़-बंधिनी :
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स्त्री० [सं० दृढ़√बंध् (बाँधना)+णिनि—ङीप्] अनंत-मूल नाम की लता। |
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दृढ़-भूमी :
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स्त्री० [ब० स०] योग-साधन में ध्यान की वह भूमि या स्थित जिसमें मन पूरी तरह से एकाग्र और स्थिर हो जाता है और जिसके उपरांत सहज में संसार से विरक्ति हो सकती है। |
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दृढ़-मुष्टि :
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स्त्री० [ब० स०] १. जिसकी मुट्ठी की पकड़ में खूब मजबूती हो। मुट्ठी में कसकर पकड़ने-वाला २. कंजूस। कृपण। ३. वे अस्त्र जो मुट्ठी में पकड़ कर चलाये जाते हों। जैसे—तलवार, भाला आदि। |
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दृढ़-मूल :
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पुं० [ब० स०] १. मूँज। २. मंथानक या मथाना नाम की घास जो तालों में होती है। ३. नारियल। |
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दृढ़-रंगा :
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स्त्री० [ब० स०, टाप्] फिटकरी। |
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दृढ़-रोह :
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पुं० [ब० स०] पाकर का पेड़। |
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दृढ़-लता :
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स्त्री० [कर्म० स०] पातालगारुड़ी लता। छिरेंटा। |
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दृढ़-लोम् (न्) :
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वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० दृढ़लोम्नी, दृढ़लोमा] जिसके शरीर के रोएँ दृढ़, फलतः कठोर तथा खड़े हों। पुं० सूअर। |
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दृढ़-वर्म्मा (र्मन्) :
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पुं० [ब० स०] धृतराष्ट्र के पुत्र का नाम। |
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दृढ़-वल्कल :
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वि० [ब० स०] जिसकी छाल कड़ी हो। पुं० १. सुपारी का पेड़ २. लकुच का पेड़। |
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दृढ़-वल्का :
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स्त्री० [ब० स० टाप्] अबंष्टा। |
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दृढ़-वीज :
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वि० [ब० स०] जिसके बीज कडे हों। पुं० १. चकवँड़। २. बेर। ३. कीकर। बबूल। |
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दृढ़-व्रत :
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वि० [ब० स०] अपने व्रत या संकल्प पर दृढ़ रहनेवाला। |
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दृढ़-संध :
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वि० [ब० स०] अपनी प्रतिज्ञा या संकल्प पर दृढ़ रहनेवाला। पुं० धृतराष्ट्र का एक पुत्र। |
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दृढ़-सूत्रिका :
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स्त्री० [ब० स०, कप्-टाप्, इत्व] मूर्वा नाम की लता। मुर्रा। |
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दृढ़-स्कंध :
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पुं० [ब० स०] १. पिंडखजूर। २. खिरनी का पेड़। |
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दृढ़-हस्त :
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वि० [ब० स०] १. जो हथियार आदि पकड़ने में पक्का हो। २. जो हर चीज मजबूती से पकड़ सकता हो। पुं० धृतराष्ट्र का एक पुत्र। |
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दृढ़क-व्यूह :
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पु० [सं० दृढ़+कन्, दृढ़क-व्यूह कर्म० स०] ऐसी व्यूह-रचना जिसमें पक्ष तथा कक्ष कुछ-कुछ पीछे हटे हों। (कौ०) |
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दृढ़कारिता :
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स्त्री०[सं० दृढकारिन्+तल्—टाप्] किसी चीज या बात को दृढ़ या पक्का करने की क्रिया या भाव। |
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दृढ़क्षत्र :
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पुं० [सं०] धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम। |
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दृढ़च्छद :
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पुं० [ब० स०] दीर्घरोहिष तृण। बड़ी रोहिस। |
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दृढ़ता :
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स्त्री० [सं० दृढ़+तल्—टाप्] १. दृढ़ होने की अवस्था, गुण या भावो। २. पक्कापन। मजबूती। ३. अपने विचार, प्रतिज्ञा आदि पर जमे रहने का भाव। |
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दृढ़त्व :
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पुं० [सं० दृढ़+त्व]=दृढ़ता। |
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दृढ़धन्वी (न्विन्) :
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वि० [कर्म० स०] जिसका धनुष दृढ़ हो। |
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दृढ़व्य :
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पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि। |
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दृढ़स्यु :
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पुं० [सं०] लोपामुद्रा के गर्भ से उत्पन्न अगस्त्य मुनि का एक पुत्र। |
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दृढ़ाना :
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स० [हिं० दृढ़+ना (प्रत्य०)] १. दृढ़, मजबूत या कड़ा करना। २. निश्चित या स्थिर करना। उदा०—चलो साथ अस मंत्र दृढ़ाई।—तुलसी। अ० १. दृढ़, मजबूत या कड़ा होना। २. निश्चित या स्थिर होना। पक्का होना। |
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दृढ़ायन :
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पुं० [सं०] १. दृढ़ या पक्का करना। पुष्टि। २. किसी की कही हुई बात, किये हुए काम अथवा किसी की नियीक्ति आदि को पक्का या ठीक ठहराना। (कनफर्मेशन) |
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दृढ़ायु :
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पुं० [सं०] १. तृतीय मनु सावर्णि के एक पुत्र का नाम। २. राजा ऐल का एक पुत्र जो उर्वशी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। |
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दृढ़ायुध :
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वि० [दृढ़-आयुध ब० स०] १. अस्त्र ग्रहण करने में पक्का २. युद्ध में तत्पर। पुं० धृतराष्ट्र का एक पुत्र। |
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दृढ़ाश्व :
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पुं० [सं०] धुंधुमार के एक पुत्र का नाम। |
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दृढ़ीकरण :
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पुं० [सं० दृढ+च्वि√क्र (करना)+ल्यूट—अन)]=दृढ़ायन। |
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