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दुःख  : पुं० [सं०√दुःख (क्लेश)+अच्] भू० कृ० दुःखित, वि० दुःखी] १. मन में होनेवाली वह अप्रिय और अवांछित अनूभूति जो किसी प्रकार के उपकार, आघात, आपत्ति, दुर्घटना, दुष्कर्म, निराशा, व्याधि, हानि आदि के फलस्वरूप होती है। अनिष्ट, बुरी या विरोधी मानी जानेवाली बातों के कारण उत्पन्न होनेवाली मन की वह स्थिति जिससे आदमी छूटना या बचना चाहता है। ‘सुख’ का विपर्याय। (ग्रीफ, सारो) विशेष—(क) शास्त्रों में ‘दुःख’ का विवेचन और स्वरूप-निर्धारण अनेक प्रकार से किया गया है; उसके कई प्रकार के वर्गीकरण किये गये हैं। और उसके निवारण के अलग-अलग उपाय बताये गये हैं। सांख्य ने उसे चित्त का धर्म माना है, पर न्याय और वैशेषिक ने उसे आत्मा का धर्म कहा है। योग के अनुसार वे सभी बातें दुःख हैं जो समाधि में बाधक होती हैं। गौतम बुद्घ ने तो जन्म से मृत्यु तक की सभी बातों को दुःख माना है; और उसे चार आर्य सत्यों में पहला स्थान दिया है। (ख) लौकिक दृष्टि से ‘सुख’ का अभाव या विनाश ही दुःख है और वह मानसिक तथा शारीरिक दोनों प्रकार का होता है। कारण या मूल के विचार से यह शास्त्रों में तीन प्रकार का कहा गया है—आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक। (ग) आर्थी दृष्ट से इसके कष्ट, क्लेश, खेद, पीड़ा, विषाद, वेदना, व्यथा, शोक, संताप आदि ऐसे भेद-विभेद हैं, जो मुख्यतः अलग प्रकार की मानसिक या शारीरिक परिस्थितियों के सूचक हैं और जिनमें यह अनुभूति या मनः स्थिति कभी कुछ हलकी, कभी कुछ तेज और कभी बहुत तेज होती है। क्रि० प्र०—देना—पहुँचना।—पाना।—भोगना।—मिलना।—सहना। मुहा०—दुःख उठाना=दुःख भोगना या सहना। (किसी का) दुःख बँटाना=दुःख, विपत्ति आदि के समय किसी की सहायता करके उसका दुःख कम करना। दुःख भरना=कष्ट या दुःख भोगना या सहना। २. आपत्ति। विपत्ति। संकट। जैसे—इधर बरसों से उन पर बराबर दुःख पर दुःख आते रहे हैं। ३. बीमारी। रोग। (क्व०)
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दुःख-ग्राम  : वि० [ब० स०] दुःखों से भरा हुआ। पुं० संसार।
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दुःख-त्रय  : पुं० [सं० ष० त०] आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक ये तीन प्रकार के दुःख।
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दुःख-दग्ध  : वि० [तृ० त०] बहुत अधिक दुःखी।
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दुःख-निवह  : वि० [ब० स०] दुःसह।
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दुःख-प्रद  : वि० [ष० त०]=दुःखद।
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दुःख-बहुल  : वि० [ब० स०] जिसमें बहुत अधिक दुःख (कष्ट या क्लेश) हो। दुःखमय।
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दुःख-लभ्य  : वि० [तृ० त०] १. जो दुःख या कष्ट से प्राप्त होता हो।२. जो कठिनता से मिले।
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दुःख-लोक  : पुं० [ष० त०] संसार।
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दुःख-वाद  : पुं० [सं० ष० त०] यह मत या सिद्घांत कि यह सारा संसार और इसमें का जीवन दुःखमय है। ‘सुखवाद’ का विपर्याय।
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दुःख-सागर  : पुं० [ष० त०] संसार जो दुःखों का घर माना गया है।
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दुःख-साध्य  : वि० [तृ० त०] (कार्य) जिसके साधन में अनेक प्रकार के दुःख सहने पड़े हों।
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दुःखकर  : वि० [सं० दुःख√कृ (करना)+ट] दुःखद। दुःखदायक।
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दुःखजीवी (विन्)  : वि० [सं० दुःख√जीव् (जीना)+णिनि] दुःखों में पलने तथा रहनेवाला।
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दुःखद  : वि० [सं० दुःख√दा (देना)+क] १. दुःख या कष्ट देनेवाला। २. जिसके कारण या फलस्वरूप मन को दुःख पहुँचे। जैसे—मृत्यु का दुःखद समाचार।
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दुःखदाता (तृ)  : वि० [सं० ष० त०] दुःख पहुँचानेवाला (मनुष्य)।
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दुःखदानि  : वि० स्त्री० [सं० दुःखदायिनी] दुःख देनेवाली। तकलीफ पहुँचानेवाली। उदा०—यह सुनि गुरु बानी धनु गनु तानी जानी द्विज दुखदानि।—केशव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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दुःखदायक  : वि० [ष० त०] १.= दुःख दायिन्। २.=दुःखद।
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दुःखदायी (यिन्)  : वि० [सं० दुःख√दा+णिनि] [स्त्री० दुःखदायनी] १. (व्यक्ति) जो दूसरों को दुःख देता हो। २. दुःखद।
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दुःखदोह्या  : वि०, स्त्री० [तृ० त०] गाय या भैंस जिसे कठिनता से दूहा जा सके।
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दुःखमय  : वि० [सं० दुःख+मयट्] बहुत अधिक दुःख या दुःखों से भरा हुआ। दुःखों से परिपूर्ण। जैसे—दुःखमय जगत।
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दुःखवादी (दिन्)  : वि० [सं० दुःखवाद+इनि] दुःखवाद-संबंधी। दुःखवाद का। पुं० वह जो दुःखवाद का पोषक या समर्थक हो।
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दुःखांत  : वि० [दुःख-अंत ब० स०] जिसका अंत या अंतिम अंश दुःखद, दुःखमय या दुःखों से परिपूर्ण हो। जैसे—दुःखांत नाटक या कहानी। पुं० १. दुःख की समाप्ति। २. दुःख की पराकाष्ठा।
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दुःखातीत  : वि० [दुःख-अतीत द्वि० त०] दुःखों से जिसे मुक्ति मिली हो।
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दुःखान्वित  : वि० [दुःख-अन्वित तृ० त०] १. दुःखमय। २. बहुत अधिक दुःखी।
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दुःखायतन  : पुं० [दुःख-आयतन ष० त०] दुःखसागर। संसार।
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दुःखार्त  : वि० [दुःख-आर्त तृ० त०] बहुत अधिक दुःखी।
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दुःखित  : भू० कृ० [सं० दुःख+इतच्] जिसे बहुत अधिक दुःख (कष्ट या क्लेश) हुआ हो।
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दुःखी (खिन्)  : वि० [सं० दुःख+इनि] १. जिसे दुःख मिला या पहुँचा हो। २. जिसके मन में किसी प्रकार का दुःख हो। (विशेष दे० ‘दुःखी’)
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