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त्रस  : वि० [सं०√त्रस् (भय करना)+क] चलनेवाला। चलनशील। पुं० १. वन। जंगल। २. चलने-फिरनेवाले समस्त जीव। जैसे–पशु, मनुष्य आदि। ३. धूल का वह कण जो प्रायः किरणों में उड़ता तथा चमकता हुआ दिखाई देता है।
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त्रस-रेणु  : पुं० [सं० उपमि० स०] धूल का वह कण जो प्रकाश रश्मियों में उड़ता तथा चमकता हुआ दिखाई देता है। स्त्री० सूर्य की एक पत्नी।
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त्रसन  : पुं० [सं०√त्रस्+ल्युट-अन] १. किसी के मन में त्रास या भय उत्पन्न करने की क्रिया या भाव २. डर। भय। ३. भयभीत होने की अवस्था या भाव। ४. चिंता। फिक्र। ५. वह आभूषण जो पहनने पर झूलता या हिलता-डुलता रहे।
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त्रसना  : अ० [सं० त्रसन्] १. भयभीत होना। २. त्रस्त होना। स० चितिंत या भयभीत करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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त्रसर  : पुं० [सं०√त्रस्+अरन्(बा०)] जुलाहों की ढरकी। तसर।
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त्रसाना  : स० [हिं० त्रसाना का प्रे० रूप] किसी को किसी दूसरे के द्वारात्रस्त या भयभीत कराना।
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त्रसित  : भू० कृ० [सं० त्रस्त] १. डरा हआ। २. पीड़ित।
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त्रसुर  : वि० [सं०√त्रस्+क्त] १. बहुत अधिक डरा हुआ। भयभीत। २. पीड़ित।
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त्रस्नु  : वि० [सं०√त्रस्+क्नु] जो भय से काँप रहा हो। बहुत अधिक डरा हुआ।
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