शब्द का अर्थ
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					तप्त					 :
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					वि० [सं०√तप्(दाह)+क्त] १. (पदार्थ) जो तपा या तपाया हुआ हो। गरम। २. (व्यक्ति) जिसने खूब तपस्या की हो। ३. जिसे बहुत अधिक मानसिक कष्ट पहुँचा हो। परम दुःखी। ४. आवेश आदि के कारण विकल।				 | 
			
			
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					तप्त-कच्छ्					 :
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					पुं० [ब० स०] एक व्रत जिसमें बराबर तीन दिन तक गरम पानी, गरम दूध, या गरम घी पीया जाता है और गरम श्वास बराबर निकाला जाता है।				 | 
			
			
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					तप्त-पाषाण					 :
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					पुं० [ब० स०] पुराणानुसार एक नरक।				 | 
			
			
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					तप्त-बालुक					 :
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					पुं० [ब० स०] पुराणानुसार एक नरक।				 | 
			
			
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					तप्त-मुद्रा					 :
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					पुं० [कर्म० स०] वह चिन्ह जो वैष्णव संप्रदाय के लोग धातुओं के गरम ठप्पे से शरीर पर दगवाते है।				 | 
			
			
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					तप्त-रूपक					 :
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					पुं० [कर्म० स०] तपाई हुई (और फलतः साफ) चाँदी।				 | 
			
			
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					तप्त-शूर्मी					 :
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					पुं० [ब० स०] पुराणानुसार एक नरक जिसमें जीवों को लोहे के गरम खंभों का आलिंगन करना पड़ता है।				 | 
			
			
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					तप्त-सुरा-कुंड					 :
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					पुं० [सं० तप्त-सुरा,कर्म०स०तप्त-सुरा-कुंड,ब०स०] पुराणानुसार एक नरक।				 | 
			
			
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					तप्तक					 :
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					पुं० [सं० तप्त+कन्] कड़ाही।				 | 
			
			
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					तप्तकुंड					 :
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					पुं० [कर्म० स०] वह जलाशय जिसका जल प्राकृतिक रूप से ही गरम रहता हो।				 | 
			
			
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					तप्तकुंभ					 :
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					पुं० [ब० स०] पुराणानुसार एक नरक जिसमें जीवों को तपे हुए तेल के कड़ाहों में फेंका जाता है।				 | 
			
			
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					तप्तमाष					 :
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					पुं० [ब० स०] प्राचीन काल की एक परीक्षा जिसमें तपे हुए तेल में अभियुक्त के हाथ के उँगलियों डलवाकर यह देखा जाता था कि वह अपरधी या दोषी है या नही। यदि उसकी उँगलियाँ जल जाती थी, तो वह अपराधी समझा जाता था और यदि उँगलियाँ नहीं जलती थी तो वह निर्दोष माना जाता था।				 | 
			
			
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					तप्ता(प्तृ)					 :
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					वि० [सं०√तप्(दाह)+तृच्] तप्त करनेवाला।				 | 
			
			
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					तप्तायन					 :
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					पुं=तप्तायनी।				 | 
			
			
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					तप्तायनी					 :
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					स्त्री० [सं० तप्त-अयनी,ष०त०] पृथ्वी,जो दुःखी प्राणियों का निवास-स्थान मानी गयी है।				 | 
			
			
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					तप्ति					 :
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					स्त्री० [सं०√तप्+क्तिन्] तप्त होने की अवस्था,गुण या भाव। तपा। गरमी।				 | 
			
			
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