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अक  : पुं० [सं० अ=नहीं-क=सुख, न० त०] १. सुख का अभाव। २. सुख का विरोधी भाव। कष्ट, दुःख, विपत्ति आदि। पुं० [सं० अघ] पाप। उदाहरण—बरबस करत बिरोध हठि, होन चहत अक हीन—तुलसी। पुं० =आक (मदार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकच  : वि० [न० ब०] जिसके सिर पर कच या बाल न हों। गंजा। पुं० केतु ग्रह का एक नाम।
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अकचकाना  : अ० [सं० चकित] आश्चर्य में आना। चकित होना।
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अकच्छ  : वि० [सं० अ=रहित√कच्छ वा कक्ष=काछा या धोती] १. जिसके शरीर पर कपड़ा न हों, नंगा। २. दुराचारी। लंपट।
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अकंटक  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें काँटे न हों। कंटक-रहित। २. विघ्न-बाधा आदि से रहित।
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अकटुक  : वि० [न० त०] १. जो कटु अथवा कडुवा न हो। २. जो थका न हो। अक्लांत। ३. जो जल्दी थके नहीं।
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अकड़  : स्त्री० [सं० आ=अच्छी तरह+कड्ड=कड़ा होना] १. अकड़ने अथवा ऐठनें की क्रिया या भाव। तनाव। ऐंठ। २. अभिमान, शेखी। ३. धृष्टकता। ढिठाई।
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अकड़  : पुं०=अकड़बाज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकड़-फों  : पुं० हि० अकड़+फों (अनु] बहुत ही अभिमान भरा आचरण और व्यवहार।
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अकड़ना  : अ० [हि० अकड़+ना प्रत्य०] १. कड़े होने या सूखने के कारण खिंचना या तनना। ऐंठना। २. अभिमान या घमंड दिखाना। इतराना। ३. अभिमान। मूर्खता आदि के कारण दुराग्रह या धृष्टता करना। ४. सरदी के कारण ठिठुरना या स्तब्ध होना।
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अकड़बाई  : स्त्री० [सं० कड्ड=कड़ापन+हिं० बाई=बात] एक बात रोग जिसमें नसें तन जाती हैं और शरीर में पीड़ा होने लगती है।
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अकड़बाज  : वि० [हिं० अकड़+फा० बाज] १. अकड़ अथवा ऐंठ दिखलाने वाला। घमंडी। २. लड़का। पुं० वह जो अनुचित हठ या अभिमान करता हो। शेखीबाज।
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अकड़बाजी  : स्त्री० [हि० अकड़√फा० फाजी] अकड़ने, ऐंठने या अभिमान दिखाने का भाव। शेखी।
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अकड़म  : पुं० [सं० अ, क० ड, म, +अच्] एक प्रकार का तांत्रिक चक्र।
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अकड़ा  : पुं० [सं० कड्ड=कड़ापन] चौपायों को होनेवाला छूत का एक रोग।
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अकड़ाव  : पुं० [हिं० अकड़] अकड़ने की क्रिया या भाव। ऐंठन। तनाव।
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अकड़ैत  : वि० =अकड़बाज।
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अकत  : वि० [सं० अक्षत] १. पूरा। समूचा। २. बिलकुल। सब। क्र० वि० एकदम से। बिलकुल।
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अकत्थ  : वि०=अकथ्य(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकथ  : वि० [सं० अकथ्य] १. जो कहा न जा सके। २. जो कहे जाने के योग्य न हो। ३. जिसका वर्णन करना बहुत कठिन या असंभव हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकथनीय  : वि० [सं० न० त०] १. जो कहा न जा सके। २. जिसका वर्णन न हो सके।
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अकथह  : पुं० [सं० अ क छ ह+अच्] दे० ‘अकड़म'।
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अकथित  : भू० कृ० [सं० न० त०] १. जो कहा न गया हो। अनुक्त २. गौण (कर्म्०)।
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अकथ्य  : वि० [सं० न० त०] १. जो कहे जाने के योग्य न हो। २. दे० ‘अकथनीय’।
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अकधक  : पुं० [अनु०] १. आगा-पीछा। सोच-विचार। २. आशंका। डर। भय। ३.शक। संदेह।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकनना  : सं० [सं० आकर्णन=सुनना] १. सुनना। २. ध्यान लगाकर सुनना। ३. कान लगाकर या चोरी से सुनना। ४. आहट या थाह लेना। उदाहरण—अविनय अकनि राम पगु धारे।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकना  : [सं० आकुल] १. उकताना। ऊबना। २. घबराना। पुं० ज्वार की ऐसी बाल जिसके दाने निकाल लिये गये हों। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकनिष्ठ  : वि० [सं० न० त०] १. जो कनिष्ठ या छोटा न हो। २. सब से छोटा। पुं० १. गौतम बुद्ध। २. बौद्ध देवताओं का एक वर्ग।
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अकंप  : वि० [सं० न० ब०] (भाव० अकंपत्व) जिसमें कंपन न हो स्थिर।
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अकंपन  : पुं० [सं० न० त०] १. कंपन का अभाव। २. (न० ब०) रावण की सेना का एक राक्षस।
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अकंपित  : भू० कृ० [सं० न० त०] जिसमें कंपन न हुआ हो। पुं० बौद्ध-गणाधिपों का एक भेद या वर्ग।
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अकंप्य  : वि० [सं० न० त०] जिसे कँपाया न जा सके, अटल।
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अकबक  : पुं० [हि० अक (बक का अनु०) +बकना का बक] १. इधर-उधर की और निरर्थक बात। असंबद्ध प्रलाप। २. घबराहट या विकलता की ऐसी स्थिति जिसमें मनुष्य उक्त प्रकार की असंबद्ध बातें करता है। वि० असंबद्ध। बे-सिर-पैर का। उदाहरण—अकबल बोलत बैन कह्वौ हम तुन्हैं बिकैहैं—रत्नाकर।
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अकबकाना  : [अ० हिं० अकबक] १. अकबक या वयर्थ की बातें करना। २. चकित या भौचक्का होना। ३. घबराना।
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अकबर  : वि० [अ०] बहुत बड़ा महान्। पुं० प्रसिद्ध मुगल सम्राट जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर का संक्षिप्त नाम। (सन् १५४२-१६॰५)
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अकबरी  : वि० [अ०] अकबर नामक मुगल बादशाह से संबंध रखने वाला। जैसे—अकबरी अशरफी। स्त्री० १. एक प्रकार की मिठाई। २. लकड़ी पर की जाने वाली एक प्रकार की नकाशी।
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अकबाल  : पुं० दे० ‘इकबाल'।
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अकर  : वि० [सं० न० त०] १. जो करने योग्य न हो। अनुचित। बुरा। २. जो कुछ न कर रहा हो। अक्रिय। निष्क्रिय ३. जिसके कर (हाथ) न हों। बिना हाथों वाला। कर-विहीन। ४. जिस पर कर (शुल्क) न लगता हो या लगा हो। कर-रहित।
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अकरकरा  : पुं० [अ० अक़रक़ईः, सं० आकरकरभ] उत्तरी अफ्रीका का एक पौधा जिसकी जड़ दवा के काम आती है।
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अकरखना  : स० [सं० आकर्षण] १. आकृष्ट करना। खींचना। २. तानना। ३. चढ़ाना (धनुष पर तीर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकरण  : वि० [सं० न० ब०] करण या इंद्रियों से रहित। पुं० ईश्वर या परमात्मा का एक नाम। वि० १. [कार्य] जो किये जाने के योग्य न हो। २. अनुचित। बुरा। ३. कठिन। दुष्कर। पुं० [सं० न० त०] १. कुछ भी न करने की क्रिया या भाव। २. जो काम किया जाना चाहिए वह न करना। कर्त्तव्य कर्म न करना। (ओमिशन) ३. किसी किये हुए काम को ऐसा रूप देना कि वह न किये हुए के समान हो जाए।
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अकरणीय  : वि० [सं० न० त०] (काम) जो किये जाने के योग्य न हो। अनुचित। बुरा।
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अकरन  : वि० =अकारण। उदाहरण—कर-कुठार मैं अकरन कोही—तुलसी। वि० [सं० अकरण] १. न किये जाने के योग्य। अकरणीय। उदाहरण—रीतौ भरै, भरौ ढरकावे अकरन करन करै-सूर। २. अनुचित। निन्दनीय। बुरा। ३. कठिन। दुष्कर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकरनीय  : वि०=अकरणीय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकरब  : पुं० [अ०] १. बिच्छू। २. वृश्चिक राशि। ३. वह घोड़ा जिसके मुँह पर के सफेद रोओं के बीच में दूसरे रंग के रोएँ हों। (ऐसा घोड़ा दोषयुक्त या खराब माना जाता है।)
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अकरा  : वि० [सं० अक्रय्य] १. जो महँगा अथवा अधिक मूल्य का होने से मोल लेने योग्य न हो। कीमती। २. अधिक मूल्य का महँगा। ३. अच्छा। बढ़िया। श्रेष्ठ। स्त्री० [सं० ] आमलकी। आँवला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकराथ  : वि०=अकारथ।
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अकराम  : पुं० [अ०करम (=कृपा) का बहु०] कृपा। अनुग्रह। पद—इनाम-अकराम=पारितोषिक और अनेक प्रकार के अनुग्रह।
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अकरार  : पुं० [हिं० अ+अ० करार=निश्चय, स्थिरता आदि] १. निश्चय या स्थिरता का अभाव। वि० जिसका कोई रूप या मर्यादा न हो। अनिश्चित या अ-स्थिर। पुं० १. दे० ‘इकरार’। २. दे० ‘करार’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकराल  : वि० [सं० न० त०] १. जो कराल या भयंकर न हो। सौम्य। २. सुन्दर। वि० =कराल (भीषण)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकरावना  : वि० १. डरावना। भयानक। २. मन में घृणा उत्पन्न करनेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकरास  : पुं० [सं० अकर] १. आलस्य। सुस्ती। २. अँगड़ाई।
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अकरासू  : पुं० स्त्री० (हिं० अकरास] जिसे गर्भ हो। गर्भवती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकरी  : स्त्री० [सं० आ=अच्छी तरह+किरण=बिखरना] १. बीज बोने के लिए लकड़ी का एक प्रकार का चोंगा जो हल में लगा रहता है। २. एक प्रकार का क्षुप या पौधा। वि०=अक्रिय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकरुण  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें करुणा या दया न हो। करुणा-रहित। २. निर्दय। निष्ठुर।
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अकरूर  : पुं०=अक्रूर।
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अकर्ण  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसके कान न हो। बिना कानोंवाला। २. जिसके कान छोटे हों। ३. बहरा। ४. (नाव) जिसमें पतवार न हो। पुं० साँप।
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अकर्तव्य  : वि० [सं० न० त०] (काम) जो करने योग्य न हो। अनुचित। बुरा। पुं० वह कार्य जिसे करना उचित न हो। अनुचित काम।
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अकर्ता (र्तृ)  : वि० [सं० न० त०] १. जो कर्ता (करनेवाला) न हो। २. जो किसी काम में लगा न हो। सब कर्मों से अलग और आलिप्त। जैसे—सांख्य में पुरुष अकर्ता माना गया हैं।
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अकर्तृक  : वि० [सं० न० ब०] १.जिसका कोई कता या रचयिता न हो। कर्ताविहीन। २. जो (किसी का) किया हुआ न हो।
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अकर्तृत्व  : पुं० [सं० न० त०] १. अकर्ता होने की अवस्था या भाव। २. कर्तृव्य (या उसके अभिमान) का अभाव।
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अकर्म (र्मन्)  : पुं० [सं० न० त०] १. कर्म का अभाव। काम न करने का भाव। २. कर्म या कार्य का न होना। ३. न करने योग्य काम। अनुचित या बुरा काम।
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अकर्मक क्रिया  : स्त्री० [सं० अकर्मक० ब०, कप् अकर्मिका-क्रिया, क्रम०स०] व्याकरण में, क्रिया के दो मुख्य भेदों में से एक, जिसके साथ कोई कर्म नहीं होता अथवा जिसमें कर्म की अपेक्षा नहीं होती। (इन्ट्रान्जिटिव वर्ब) जैसे—दौड़ना, भटकना, सोना आदि।
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अकर्मण्य  : वि० [सं० कर्मन+यत्, न त०] [भाव० अकर्मण्यता] १. (व्यक्ति) जो कोई काम ठीक तरह से न कर सकता हो। निकम्मा। २. (पदार्थ) जो किसी काम का या उपयोगी न हो। व्यर्थ।
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अकर्मण्यता  : स्त्री० [सं० अकर्ण्यय+तल्-टाप्] अकर्मण्य होने की अवस्था या भाव।
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अकर्मा (र्मन्)  : वि० [सं० न० ब०] १. दे० अकर्ता। २. दे० ‘अकर्मण्य'।
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अकर्मी (र्मिन्)  : पुं० [सं० कर्मन्+इन्, न० त०] (स्त्री० अकर्मिणी] १. अकर्म या बुरा कर्म करने वाला। पापी। २. अपराधी। दोषी।
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अकर्षण  : पुं०=आकर्षण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकल  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें कल (अवयव या अंग) न हों। २. जिसके खंड या टुकड़े न हुए हों। पूरा। समूचा। ३. उक्त कारणों से परमात्मा का एक विश्लेषण। ४. जिसमें कोई कला या विशेषता न हो। ५. बेचैन। विकाल। व्याकुल। स्त्री०=अक्ल (बुद्धि)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकल-खुरा  : वि० [हि० अकेला+फा० खोर अकेला खानेवाला अर्थात् स्वार्थी या मतलबी। जैसे—अकल खुरा, जग से बुरा।—कहा०।
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अकलंक  : वि० [सं० न० ब०] [भाव० अकलंकता] १. जिसमें कलंक अथवा दोष न हो। कलंक रहित। २. सब तरह से निर्मल। पुं० दे० ‘कलंक’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकलंकता  : वि० [सं० अकलंक+तल्-टाप्] कलंक अथवा दोष से युक्त न होने का भाव। निर्दोषता।
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अकलंकित  : वि० [सं० न० त०] १. जिसमें कोई कलंक न लगा हो। २. निर्दोष और शुद्ध।
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अकलंकी (किन्)  : वि० [सं० न० त०] जिसमें कोई कलंक या दोष न हो। निष्कलंक। वि० दे० ‘कलंकी’।
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अकलबीर  : पुं० [सं० करवीर ?] एक पौधा जिसकी जड़ रेशम रँगने के काम आती है।
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अकला  : वि०=अकेला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकलीम  : स्त्री० [अ० इकलीम] १. ऊपर के लोकों में से सातवाँ लोक। २. सातों लोक। उदाहरण—औ सातूँ अकलीम में चावोगढ़ चीतोड़-बाँकीदास। ३. राज्य। ४. देश। प्रान्त।
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अकलुष  : वि० [सं० न० त०] १. जिसमें कलुष न हो। कलुष से रहित। २. पवित्र। शुद्ध। ३.निर्मल। साफ।
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अकल्प  : वि० [सं० न० ब०] १. नियंत्रण या नियम को मानने वाला। २. जिसमें क्षमता न हो। अक्षम। ३. कमजोर। दुर्बल। ४. अतुलनीय।
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अकल्पित  : वि० [सं० न० त०] १. जिसकी कल्पना न की जा सके। कल्पना से बाहर। २. जो कल्पित अथवा मन-गढ़त न हो, बल्कि जिसका कुछ आधार हो। वास्तविक। ३. पहले से जिसकी कल्पना या अनुमान न किया गया हो। अतर्कित।
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अकल्मष  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें कोई कल्मष न हो, निर्दोष। २. पवित्र। शुद्ध। पुं० कल्मष (दोष आदि) का अभाव।
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अकल्याण  : पुं० [सं० न० त०] १. कल्याण का अभाव। अशुभ अमंगलजनक स्थिति। २. अहित। खराबी। हानि। वि० [सं० न० ब०] कल्याण-रहित।
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अकवना  : पुं० दे० ‘मदार’। (पौधा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकस  : पुं० [सं० आकर्ष] १. किसी के प्रति मन में होनेवाला ऐसा दुर्भाव जो उसे अलग या दूर करने की प्रवृति उत्पन्न करता है। मन-मुटाव। २. वैर। शत्रुता। ३. ऐंठ। अकड़। पुं० [अ० अक्स, मि० सं० आकर्ष] १. छाया। परछाँही। २. प्रतिबिम्ब।
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अकसना  : अ० [सं० आकर्ष, हि० अकस] १. मन में दुर्भाव, द्वेष या बैर रखना। २. अकड़ या ऐंठ दिखाना। ३. विरोध, वैर या शत्रुता करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकसर  : वि० [हिं० अक=एक+सर (प्रत्यय)] जिसके साथ कोई न हो। अकेला। उदाहरण—कौन हेतु मन व्यग्र अति, अकसर आएतु नाथ—तुलसी। क्रि० वि० बिना किसी को अपने साथ लिए। अकेले। अव्य [अ०अक्सर] बीच-बीच में। अधिक अवसरों पर। प्रायः।
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अकसीर  : स्त्री० [अ० अक्सीर] वह रस या भस्म जो किसी निम्न कोटि की धातु कोसोना या चाँदी के रूप में परिवर्तित कर दे। रसायन। वि० निश्चित रूप से अपना गुण, प्रभाव या फल दिखानेवाला। अचूक। अव्यर्थ।
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अकस्मात्  : क्रि० वि० [सं० न-कस्मात्, अलुक् स०] १. एकदम से। अचानक। सहसा। २. दैव योग से और अतर्कित रूप में।
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अकह  : वि० १. दे० ‘अकथ्य'। २. दे० ‘अकथनीय’।
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अकहुआ  : वि० दे० ‘अकथनीय'। पुं०=आक (मदार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकाज  : पुं० [सं० अकार्य] १. खराब या बुरा काम। २. किसी काम में होने वाली देर, बाधा या हानि-हरज। क्रि० वि० बिना किसी फलया लाभ के। निष्प्रयोजन। व्यर्थ। उदाहरण—बीते जाये है, जनम अकाज रे—नानक।
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अकाजना  : अ० [हिं० अकाज] १. अकाज, हरज या हानि होना। २. निष्प्रयोजन या व्यर्थ हो जाना। किसी योग्य न रह जाना। उदाहरण—मानहुँ राज अकाजेउ आजू।—तुलसी। स० अकाज [हरज या हानि] करना। अ० [हिं० काल) मर जाना।
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अकाजी  : वि० [हिं० अकाज] [स्त्री० अकाजिनि] १. जिसे कोई काम न हो। २. अकाज या हरज करने वाला। ३. कार्य में रोड़ा अटकानेवाला।
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अकाट  : वि० दे० ‘अकाट्य'।
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अकाट्य  : वि० [हिं० अ+काटना, असिद्ध रूप] १. जो काटा न जा सके। २. तर्क, युक्ति आदि से जिसका खंडन न किया जा सके। जैसे—अकाट्य प्रमाण।
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अकांड  : वि० [सं० न० ब०] १. (वृक्ष) जिसमें कांड या शाखाएँ न हों। शाखाओं से रहित (वृक्ष)। २. अचानक या असमय में होने वाला। क्रि० वि० [सं० न० त०] अचानक। सहसा।
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अकांड-तांडव  : पुं० [सं० त०] बहुत ही छोटी बात को बहुत बढ़ाकर उसके संबंध में व्यर्थ की जाने वाली उछल-कूद और हो-हल्ला।
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अकाथ  : वि०=अकथनीय। क्रि० वि० [सं० अकृत] निष्फल। व्यर्थ। उदाहरण—कर्म धर्म तीरथ बिनु राधन, ह्वै गए सकल अकाथा।—सूर।
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अकादमी  : स्त्री० [यू० एकौडेमी] १. उच्च कोटि का विद्यालय। २. विद्वानों की वह संघटित संस्था जो किसी कला, विज्ञान, शास्त्र आदि की उन्नति, प्रचार और विवेचन के लिए बनी हो। (एकैडेमी) जैसे—साहित्य एकादमी, हिन्दुस्तान एकादमी।
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अकाम  : वि० [सं० न० ब०] जिसे किसी प्रकार की कामना या वासना न हो। निष्काम। क्रि० वि० [हि०अ+काम] बिना किसी काम के या प्रायोजन के। व्यर्थ। पुं० अनुचित, बुरा या व्यर्थ का काम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकामतः (तस्)  : क्रि० वि० [सं० अकाम+तस्] १. बिना किसी कामना के। २. बिना इच्छा या प्रयत्न के। अनजान में। यों ही।
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अकामा  : स्त्री० [सं० न० ब० टाप्] १. (किशोरी) जिसमें काम वासना अभी उत्पन्न न हुई हो। २. (स्त्री०) जिसमें काम वासना न रह गई हो।
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अकामिक  : वि० [सं० अकाम से] जिसके लिए कामना या चेष्ठा न की गई हो। आप से आप हो जाने वाला। उदाहरण—अति पुलकित तनु विहसि अकामिक।—विद्यापति।
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अकामी (मिन्)  : वि० [सं० न० त०] १. जिसके मन में किसी प्रकार की कामना या वासना न हो। अकाम। २. जिसमें काम वासना न हो या न रह गई हो।
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अकाय  : वि० [सं० न० ब०] १. जो बिना काया या शरीर के हो। काया रहित। २. जिसका कोई आकार या रूप न हो। निराकार।
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अकार  : पुं० [सं० अ+कार] अ अक्षर और उसकी उच्चारण—ध्वनि। पुं० दे० ‘आकार’। पुं०=आकाश। उदाहरण—दान मेरू बढ़ि लाग अकाराँ—जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकारज  : पुं०=अकाज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकारण  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसके मूल में कोई कारण न हो। जैसे—अकारण वैमनस्य। २. जो आपसे आप उत्पन्न हुआ हो। स्वयंभू। क्रि० वि० बिना किसी कारण या वजह के। आप से आप। यों हीं।
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अकारथ  : वि० [सं० अकार्यार्थ] जिसका कोई अच्छा फल या परिणाम न हो। बे-फायदा। जैसे—सारा परिश्रम अकारथ गया। क्रि० वि० बिना किसी उपयोग या फल के। यों ही। व्यर्थ।
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अकारन  : वि०=अकारण।
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अकारांत  : वि० [सं० अकार-अंत, ब० स०] जिसके अंत में ‘अ’ हो।
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अकारादि  : वि० [सं० अकार-आदि, ब० स०] जिसके आदि या आरंभ में ‘अ’ या अकार हो।
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अकारिय  : वि० =अकारथ। उदाहरण—गौर मुख्य वपु स्याम गिरन सम नख्य अकारिय।—चन्दबरदाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकार्य  : वि० [सं० न० त०] १. (काम) जो किये जाने के योग्य न हो। अकर्तव्य। २. अनुचित। बुरा। पुं०=अकर्म।
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अकाल  : पुं० सं० न० त०] १. ऐसा काम या समय जो किसी विशिष्ट कार्य के लिए उपयुक्त न हो। कु-समय। २. ऐसा समय जिसमें अन्न बहुत कम और बहुत कठिनता से मिलता हो। दुर्भिक्ष। ३. किसी चीज की बहुत कमी या अभाव। जैसे—कपड़े या नमक का अकाल। वि० [सं० न० ब०] १. जिसका काल न आ सके अथवा मृत्यु न हो सके। अविनाशी। २. जो उचित या उपयुक्त समय पर न हो। असामयिक। जैसे—अकाल मृत्यु, अकाल वृष्टि।
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अकाल जात  : वि० [स० त०]=अकालज।
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अकाल-कुसुम  : पुं० [ष० त] १. उपयुक्त अथवा नियत समय से बहुत पहले या पीछे किसी वृक्ष में लगने वाला फूल जो उपद्रव, दुर्भिक्ष आदि का लक्षण माना जाता है। २. वह वस्तु जो अपने उपयुक्त समय से पहले या पीछे हो।
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अकाल-जलद  : पुं० [ष० त०] वर्षा ऋतु से पहले या बाद (अकाल) में आने वाले बादल।
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अकाल-पक्व  : वि० [स० त०] उचित समय से पहले या पीछे अर्थात् बिना मौसिम के पकनेवाले (फल)।
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अकाल-पुरुष  : पुं० [अकाल, न० ब०, अकाल-पुरुष, कर्म० स०] परमेश्वर।
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अकाल-प्रसव  : पुं० [ष० त०] स्त्री० को निश्चित समय या ठीक पहले से या पीछे से होनेवाला प्रसव।
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अकाल-मृत्यु  : स्त्री० [स० त०] १. बुरे समय में होने वाली मृत्यु। २. असामयिक मृत्यु। साधारणतः उचित या नियत समय से पहले होने वाली मृत्यु।
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अकाल-वृद्ध  : वि० [स० त०] जो उचित या नियत समय से पहले ही वृद्ध या बुड्डा हो गया हो।
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अकाल-वृष्टि  : स्त्री० [ष० त०] उचित या नियत समय से पहले या पीछे होनेवाली वर्षा।
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अकालज  : पुं० [सं० अकाल√जन् (उत्पन्न होना) +ड] उचित समय से पहले या बाद (अकाल) में उत्पन्न होने वाला।
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अकालिक  : वि० [सं० कालिक, काल+ठन्, अकालिक, न० त०] अपने उचित या नियत समय से पहले या पीछे होने वाला। असामयिक।
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अकाली  : पुं० [सं० अकाल+हिं० ई] १. सिख्खों का एक संप्रदाय विशेष। २. उक्त संप्रदाय का अनुयायी। वि० जिसका संबंध उक्त संप्रदाय से हो।
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अकाव  : पुं० [सं० अर्क] आक। मदार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकाश-द्वीप  : पुं० [सं० आकाश-दीप] १. प्राचीन काल में नदी या समुद्र के किनारे रात के समय ऊँचे बाँस में बाँधकर जलाया जाने वाला दीया जिसका उद्वेश्य जल-पोतों का मार्ग दर्शन करना होता था। २. बाँस में बाँधकर जलाया जानेवाला दीप।
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अकास  : पुं०=आकाश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकास बौर  : पुं०=अकासबेल।
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अकास-दीया  : पुं०=अकाश-दीप।
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अकास-नीम  : पुं० [सं० आकाश निम्ब] एक प्रकार का पेड़।
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अकासकृत  : पुं० [सं० आकाशकृत) बिजली
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अकासबानी  : स्त्री०=आकाशवाणी।
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अकासबेल  : स्त्री० [सं० आकाशबेलि़] अमर-बेल।
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अकासी  : वि० [सं० आकाश] १. आकाश-सम्बन्धी। २. आकाश में रहने या उड़ने वाला। स्त्री० १. चील (पक्षी)। २. ताड़ का रस। (ताड़ी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकि  : अव्य (हिं० कि०) कि/या/अथवा। उदाहरण—आगि जरौं अकि पानि परों कैसि करौं हिय का बिधि धीरौं—घनानन्द।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकिंचन  : वि० [सं० मयू० स०] १. जिसके पास कुछ भी न हो दरिद्र। २. जो अपने कर्मों का भोग पूरा कर चुका हो। ३. दे० अपरिग्रही। पुं० १. वह जिसके पास अपने निर्वाह के लिए कुछ भी धन न हो। परम दरिद्र। (पाँपर) २. वह जैन साधु जो परिग्रह धन पत्नी बच्चे और ममता से रहित हो चुका हो।
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अकिंचनता  : स्त्री० [सं० अकिंचन+तल्-टाप्) १. अकिंचन होने की अवस्था या भाव। २. परम दरिद्रता या निर्धनता। ३. परिग्रह और ममता का त्याग। (जैन)
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अकिंचित्कर  : वि० [सं० किंचित√ कृ (करना) +ट, न० त०] १. जो कुछ न कर सके। अयोग्य असमर्थ। २. तुच्छ। नगण्य। ३. जिसका कुछ भी फल न हो। व्यर्थ का। निरर्थक।
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अकित्तौ  : स्त्री०=अकीर्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकिल  : स्त्री०=अक्ल
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अकिलदाढ़  : स्त्री० (हिं० अकिल=बुद्धि+दाढ़) वह दाढ़ अथवा दाँत जो मनुष्यों की युवावस्था में निकलता है और उनमें समझदारी आने का सूचक होता है।
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अकीक  : पुं० (अ० अकीक) एक प्रकार का लाल पत्थर या रत्न।
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अकीरति  : स्त्री०=अकीर्ति।
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अकीर्ति  : स्त्री० [सं० न० त०] बुरी कीर्ति। अपयश। निन्दा। बदनामी।
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अकीर्तिकर  : वि० [सं० अकीर्ति√ कृ (करना) +ट) (ऐसी बात) जिससे कीर्ति या यश घटे या बदनामी हो।
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अकुंठ  : वि० [सं० न० ब०] १. जो कुठिंत न हो। २. तीव्र। तेज। ३. तीखा। तीक्ष्ण। ४. अच्छा। बढ़िया। ५. खुला हुआ। ६. स्थिर। ७. जो विघ्न-बाधाओं के सामने न झुकता हो।
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अकुंठित  : वि० [सं० न० त०] दे० ‘अकुठ'।
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अकुंठिल  : वि० [सं० न० त०] (भाव० अकुटिलता) १. जो टेढ़ा न हो। सीधा। २. जिसमें घुमाव न हो। ३. जिसमें कपट न हो। निष्कपट। भोला। सीधा।
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अकुताना  : अ०=उकताना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकुल  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका कोई कुल या वश न हो। २. जिसके कुल में कोई न रह गया हो। ३. निम्न या तुच्छ वंश का। अकुलीन। पुं० १. [सं० न० त०] बुरा, तुच्छ या नीच कुल। २. [सं० न० ब०] शिव का एक नाम।
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अकुलाना  : अ०[सं० आकुलन) १. आकुल होना। घबराना। जल्दी मचाना। ३. ऊबना। उकताना
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अकुलाहट  : स्त्री० (हिं० अकुलाना) आकुल या विकल होने की अवस्था या भाव।
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अकुलिनी  : वि० [सं० अकुलीना) जो उत्तम कुल की न हो। जो निम्न कुल की हो। स्त्री० व्यभिचारिणी स्त्री०।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकुलीन  : वि० [सं० न० त०] १. जो किसी उच्च कुल या परिवार का न हो। निम्न या नीच वंश का। २. पृथ्वी से संबंध न रखने वाला। अपार्थिव।
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अकुशल  : वि० [सं० न० त०] १. जो कुशल न हो। २. गुणहीन। ३. आलसी। ४. अशुभ। पुं० १. अमंगल। बुराई। २. अशुभ या बुरा शब्द।
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अकूट  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें कपट या छल न हो। २. जो अच्छे कुल या नसल का हो। ३. जो वास्तविक और विशुद्ध हो। (जेनुइन)
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अकूत  : वि [सं० अ०+हिं० कूतना) १. जो कूता न जा सके। जिसका अनुमान न हो सके। २. जो मात्रा में अत्यधिक हो। क्रि० वि० अकस्मात्। अचानक।
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अकूपार  : पुं० [सं० कूप√ ऋ (गति) +अण्, न० त०) १. समुद्र। सागर। २. कच्छप। कछुआ। ३. वह महाकच्छप जिसपर पृथ्वी आश्रित मानी जाती है। ४. बड़ा और भारी पत्थर। चट्टान। ५. सूर्य। वि० १. जिसका परिणाम अच्छा हो। २. अपार। असीम।
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अकूर  : पुं०=अंकुर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकूल  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका कूल या किनारा न हो। कूलरहित। २. जिसकी कोई सीमा न हो। सीमा-रहित।
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अकूहल  : वि० (हिं० अकूत) बहुत। अधिक।
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अकृच्छ्र  : पुं० [सं० न० त०] १. क्लेश का अभाव। २. सुगमता आसानी। वि० (न० ब०) १. कष्ट, दुख आदि से रहित। २. सुगम सहज।
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अकृत  : वि० [सं० √कृ (करना)+ क्त, न० त०) १. जो किया न गया हो। (अन्डन) २. जो ठीक प्रकार से न किया गया हो। ३. जो किसी का बनाया न हो। स्वयंभू। ४. प्राकृतिक। ५. निकम्मा। व्यर्थ का। ६. जो अभी ठीक या पूरा न हुआ हो। ७. जिसका पूरा विकास न हुआ हो। पुं० १. अधूरा काम। २. कारण। ३. मोक्ष। ४. स्वभाव।
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अकृत-कार्य  : वि० [सं० न० ब०] जिसे अपने कार्य में सफलता न हुई हो। विफल-मनोरथ।
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अकृतज्ञ  : वि० [सं० न० त०] (भाव० अकृतज्ञता) जो कृतज्ञ न हो। उपकार न माननेवाला।
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अकृतज्ञता  : स्त्री० [सं० अकृतज्ञ+तल्-टाप्) अकृतज्ञ होने की अवस्था या भाव।
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अकृता  : स्त्री० [सं० कृ (करना)+क्त-टाप्, न० त०) ऐसी कन्या जिसे पिता ने पुत्रिका न बनाया हो। वि० दे० ‘पुत्रिका'।
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अकृतात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० न-कृत-आत्मन्, न० ब०) १. अज्ञानी। २. (साधक) जिसे ईश्वर के दर्शन न हुए हों।
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अकृति  : वि०=अकृती।
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अकृती (तिन्)  : वि० [सं० न०.त०) १. काम न करने योग्य। निकम्मा। २. जो दक्ष या पटु न हो। अनाड़ी। ३. जिसने कुछ भी न किया हो।
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अकृत्य  : वि० [सं० न० त०] जो करने के योग्य न हो। पुं० दुष्कर्म। बुरा काम।
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अकृत्यकारी (रिन्)  : वि० [सं० अकृत्य√कृ+णिनि) बुरे काम करने वाला। कुकर्मी।
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अकृत्रिम  : वि० [सं० न० त०] १. जो कृत्रिम या बनावटी न हो। असली। सच्चा। २. स्वाभाविक। ३. जिसमें छल-कपट या दिखावट न हो। जैसे—अकृत्रिम प्रेम।
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अकृत्स्न  : वि० [सं० न० त०] जो पूरा न हुआ हो। अधूरा या अपूर्ण।
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अकृपा  : स्त्री० [सं० न० त०] कृपा या अनुग्रह का न होना।
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अकृषिक  : वि० [सं० न० ब० कप्) जिसका संबंध कृषि या खेती से न हो। (नाँन-एग्रिकल्चरल)
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अकृषित  : वि० [सं० अकृष्ट) (खेत) जो जोता-बोया न गया हो। (अन-कल्टिवेटेड)
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अकृष्ट  : वि० [सं० कृष्+क्त, न० त०) १. जो खींचा या खिंचा हुआ न हो। २. दे० ‘अकृषित’।
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अकृष्ण  : वि० [सं० न० त०] १. जो कृष्ण या श्याम न हो। उज्जवल। २. निर्मल। शुद्ध।
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अकेतन  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका कोई ठिकाना या घर-बार न हो। २. जिसका घर नष्ट हो चुका हो। गृह-हीन।
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अकेल  : वि० =अकेला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकेला  : वि० [सं० अकाकिन्, गु० एकल एकलु, रा० एकला० पं० इकल्ला) १. जिसके साथ और कोई न हो। २. जिसे किसी का सहयोग या सहायता न प्राप्त होती हो। ३. जो ढंग-गुण, विशेषता आदि के विचार से सब से भिन्न हो। ४. जो वर्ग विशेष में सब से उत्तम हो। सर्वश्रेष्ठ। ५. बे जोड़। ६. खाली (मकान)। पुं० एकान्त या निर्जन स्थान। यौ० अकेला-दम-=एक ही प्राणी। अकेला-दुकेला=जो या तो अकेला हो या जिसके साथ एकाध कोई और हो।
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अकेले  : क्रि० वि० [हिं० अकेला] १. बिना किसी साथी के। २. केवल। सिर्फ।
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अकेहरा  : वि० =एकहरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकैया  : पुं० [सं० अक्ष=संग्रह करना] लादने के लिए सामान भरने का थैला या गोन।
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अकोट  : वि० [सं० कोटि] करोड़ों। अगणित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकोत्तर सौ  : वि० [सं० एकोत्तरशत] सौ से एक अधिक। एक सौ एक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकोर  : पुं० [सं० उत्कोच] १. घूस। रिश्वत। २. भेंट। उपहार। पुं० दे० ‘अँकोर'।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकोला  : पुं० [सं० अकडोल] अंकोल वृक्ष।
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अकोविद  : वि० [सं० न० त०] १. जो कोविंद या जानकर न हो। २. मूर्ख।
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अकोसना  : स० [सं० आकोशन] कोसना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अकौआ  : पुं० [सं० अर्क] १. आक। मदार। २. गले के अन्दर का कौआ या घंटी। ललरी। पुं०=आक (मदार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकौटा  : पुं० [सं० अक्ष=अटन=घूमना] गड़ारी का डंडा। धुरा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अकौता  : पुं० दे० ‘ उकवत'।
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अकौशल  : पुं० [सं० न० त०] कौशल का अभाव। अयोग्यता।
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अक्क  : पुं०=आक (मदार)।
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अक्कड़  : पुं० [शामी] १. प्राचीन मौसोपोटामिया देश की एक प्रसिद्ध नगरी। २. उसके आस-पास का प्राचीन प्रदेश।
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अक्कड़ी  : वि० [शामी अक्कड़] १. अक्कड़ नगरी से संबंध रखनेवाला। २. अक्कड़ नगर या प्रदेश का रहने वाला। स्त्री० उक्त प्रदेश की पुरानी भाषा।
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अक्का  : स्त्री० [सं०√अक् (टेढ़ी चाल) +कल्, टाप्] माता। माँ।
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अक्खड़  : वि० [सं० अक्षर=न टलने वाला, प्रा० अक्खड़] (भाव० अक्खड़पन) न मुड़नेवाला। शिष्टता और सौजन्य का ध्यान छोड़कर मनमाना और अनियंत्रित आचरण करनेवाला। उद्धत और उद्दंड।
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अक्खड़-पन  : पुं० [हिं० अक्खड़+पन] अक्खड़ होने की अवस्था या भाव।
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अक्खड़ता  : स्त्री० अक्खड़पन के लिए भूल से प्रचलित असिद्ध रूप। (क्व०)
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अक्खर  : पुं०=अक्षर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अक्खा  : पुं० दे० ‘अकैया'।
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अक्खो-मक्खो  : पुं० [सं० अक्ष् + मुख) (नजर से बचाने के लिए) दीपक की लौ तक हाथ ले जाकर बच्चे के मुँह पर ‘अक्खो-मक्खों' कहते हुए फेरना।
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अक्त  : वि० [सं० अंज् (मिलना, गति आदि) +क्त) १. जो किसी में मिला, साथ लगा या चिपका हो। २. पोता या रँगा हुआ।
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अक्तूबर  : पुं० (अं०) अँगरेजी साल का दसवाँ महीना।
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अक्रम  : वि० [सं० न० ब०] १. जो क्रम से न हो। २. जिसे क्रम से न रखा गया हो। पुं० १. क्रम या सिलसिले का अभाव। क्रम हीनता। २. अव्यवस्था। पुं०=अकर्म (या दुष्कर्म)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अक्रम-सन्यास  : पुं० [सं० कर्म० स०] बीच के आश्रमों का अतिक्रमण करके धारण किया जानेवाला सन्यास।
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अक्रमातिशयोक्ति  : स्त्री० [सं० अक्रम-अतिशयोक्ति, कर्म० स०) साहित्य में अतिशयोक्ति अलंकार का एक भेद जिसमें कारण के आरंभ होते ही कार्य के पूरा हो जाने का उल्लेख होता है।
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अक्रांत  : वि० [सं० न० त०] १. जिसके आगे और कोई न निकला हो। सब से आगे बढ़ा हुआ। २. जो दबाया या हराया न गया हो।
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अक्रांता  : स्त्री० [सं० अक्रांत-टाप्] बृहती नामक पौधा। भटकटैया।
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अक्रित  : वि० दे० ‘अकृत'।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अक्रिय  : वि० [सं० न० ब०] १. जो कुछ भी न कर रहा हो। क्रियाहीन। २. जो अभी अपना प्रभाव या फल न दिखा रहा हो। ३. सब प्रकार की चेष्टाओं से रहित। जड़।
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अक्रिया  : स्त्री० [सं० न० त०] अक्रिय होने की अवस्था या भाव। क्रियाहीनता।
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अक्रियावाद  : पुं० [सं० क्रियावाद, ष० त० अक्रियावाद, न० त०] बौद्ध दर्शन का एक सिद्धान्त जिसमें यह माना जाता है कि मनुष्य की क्रियाओं का कोई अच्छा या बुरा फल नहीं होता।
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अक्री  : वि०=अक्रिय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अक्रूर  : वि० [सं० न० त०] जो क्रूर या निर्दय न हो। दयालु स्वभाववाला। पुं० एक यादव जो श्रीकृष्ण के चाचा थे।
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अक्ल  : स्त्री० [अ०] बुद्धि। समझ। मुहावरा—अक्ल के घोड़े दौड़ाना=अनेक प्रकार की बौद्धिक कल्पनाएँ करना। (व्यंग्य) अक्ल के पीछे लट्ठ लिये फिरना=हर समय मूर्खता के कार्य करते रहना। अक्ल गुम हो जाना=बुद्धि का सहसा अभाव हो जाना। अक्ल चकराना=इतना चकित होना कि बुद्धि कुछ काम न करे। अक्ल चरने जाना=बुद्धि या समझदारी का अभाव होना। अक्ल ठिकाने होना=हानि आदि होने पर मूर्खता दूर होना। अक्ल दौड़ाना या लड़ाना=सोचने-समझने का प्रयत्न करना। अक्ल पर पत्थर पड़ना=सहसा ऐसी स्थिति होना कि बुद्धि कुछ भी काम न करे। अक्ल मारी जाना=बुद्धि नष्ट होना। हतबुद्धि होना। अक्ल सठियाना=बुद्धि भ्रष्ट होना। पद—अक्ल का दुश्मन=मूर्ख। बेवकूफ। अक्ल का पुतला=बहुत बुद्धिमान। अक्ल का पूरा=मूर्ख, जड़। (व्यंग्य) अक्ल का मारा=मूर्ख।
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अक्लम  : पुं० [सं० न० त०] क्लांति या थकावट का अभाव। वि० (न० ब०) न थकनेवाला।
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अक्लमंद  : पुं० [अ०√फा०] बुद्धिमान। समझदार।
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अक्लमंदी  : स्त्री० [अ०√फा०] बुद्धिमता। समझदारी।
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अक्ष  : पुं० [सं०√अक्ष् (व्याप्ति) +अच् या घञ्] १. खेलने का पासा। २. चौसर नामक खेल। ३. वह कल्पित रेखा जिसके आधार पर वस्तुएँ परिभ्रमण अथवा अपने सब कार्यों का संचालन करती हुई मानी जाती हैं। जैसे—पृथ्वी के दोनों धुरों में मिलानेवाली कल्पित रेखा, जिस पर पृथ्वी घूमती हुई मानी जाती है। ४. किसी चीज का धुरा या धुरी। जैसे—गाड़ी का अक्ष। (ऐक्सिल, उक्त दोनों अर्थों में)। ५. गाड़ी। ६. अक्षांश के विचार से भूमध्य रेखा के उत्तर या दक्षिण में किसी स्थान का गोलीय अंतर। ७. तराजू की डंडी। ८. व्यवहार लेन-देन। ९. मुकदमा। १. कानून। ११. इंद्रिय। १२. तूतिया। १३. साँभर नमक। १४. सुहागा। १५. आँख। नेत्र। १६. बहेड़ा। १७. रुद्राक्ष। १८. साँप। १९. गरुण। २॰. आत्मा। २१. कर्ष नामक तौल जो १६ माशे की होती है। २२. दे० ‘अक्षकुमार'।
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अक्ष-कर्ण  : पुं० [कर्म०स०] समकोण त्रिभुज की सबसे लंबी भुजा। (ज्यामिति)
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अक्ष-कुमार  : पुं० [सयू० स०] रावण का एक पुत्र।
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अक्ष-क्रीड़ा  : स्त्री० [ष० त०] पासे या चौसर का खेल।
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अक्ष-दर्शक  : पुं० [ष० त०] १. न्यायाकोश। २. धर्माध्यक्ष। ३. जूएखाने का मालिक।
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अक्ष-द्यूत  : पुं० [ष० त०] पासों से खेला जाने वाला जुआ।
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अक्ष-धर  : वि० [ष० त०] धुरा धारण करने वाला। पुं० १. विष्णु। २. गाड़ी का पहिया। ३. शाखोट नामक वृक्ष।
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अक्ष-धुर  : पुं० [ष० त०] पहिए की धुरी।
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अक्ष-पटल  : पुं० [ष० त०] १. प्राचीन भारत के राज्य के आय-व्यय के लेखों का प्रधान विभाग। २. उस विभाग का प्रधान अधिकारी।
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अक्ष-पाद  : पुं० [ब० स०] १. न्याय शास्त्र के प्रवर्तक गौतम ऋषि। २. तर्क या न्याय शास्त्र का पंडित। तार्किक। नैयायिक।
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अक्ष-बंध  : पुं० [सं० ष० त०] नजर बाँधने की विद्या। नजरबंदी।
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अक्ष-मापक  : पुं० [ष० त०] ग्रह-नक्षत्र आदि देखने का एक यंत्र।
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अक्ष-माला  : स्त्री० [ष० त०] १ वसिष्ठ की पत्नी अरुंधती। २. रुद्राक्ष की माला। ३. वर्णमाला।
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अक्ष-माली (लिन्)  : वि० [सं० अक्षमाला+इनि] रुद्राक्ष की माला धारण करने वाला। पुं० शिव।
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अक्ष-रेखा  : स्त्री० [ष० त०] वह सीधी रेखा जो किसी गोले के केन्द्र से उसके तल के किसी बिन्दु तक सीधी पहुँचती है धुरी की रेखा।
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अक्ष-वाट  : पुं० [ष० त०] १. अखाड़ा। २. जूआखाना।
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अक्ष-विद्या  : स्त्री० [ष० त०] १. जुए से संबंध रखनेवाली सब बातों का ज्ञान। २. जूआ।
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अक्ष-शाला  : स्त्री० [ष० त०] प्राचीन भारतीय राज्यों का वह विभाग जिसके अधिकार में सोने, चाँदी, टकसाल आदि का प्रबंध रहता था।
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अक्ष-सूत्र  : पुं० [ष० त०] १. रुद्राक्ष की माला। २. जयमाला।
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अक्ष-हीन  : वि० [तृ० त०] जिसे आँखों से दिखाई न दे। अंधा।
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अक्षक  : पुं० [सं० अक्ष√ कै+क] तिनिश का पेड़।
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अक्षकूट  : पुं० [ष० त०] आँख की पुतली।
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अक्षज  : वि० [सं० अक्ष√जन् (उत्पन्न होना) +ड] अक्ष से उत्पन्न हुआ या बना हुआ। पुं० १. विष्णु। २. हीरा। ३. वज्र। ४. प्रत्यक्ष ज्ञान।
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अक्षत  : वि० [सं०√क्षण् (हिसा) +क्त, न० त०] १. जो क्षत या टूटा-फूटा न हो अर्थात् पूरा। २. जिसके खंड या टुकड़े न हुए हो। अखंडित। ३. क्षत या घाव से रहित। पुं० १. कच्चा चावल जिसका उपयोग देव-पूजन में किया जाता है। २. धान का लावा। ३. जौ। ४. शिव का एक नाम। ५. नपुसंक। हिजड़ा।
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अक्षत-योनि  : वि० [ब० स०] (कन्या या स्त्री०) जिसका पुरुष से संबंध या मैथुन न हुआ हो। (वर्जिन)
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अक्षत-वीर्य  : वि० [न० ब०] (पुरुष) जिसका वीर्य स्खलित न हुआ हो। पुं० १. शिव। २. नपुंसक। (क्व) ३. क्षय का अभाव।
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अक्षंतव्य  : वि० [सं० क्षम्+तव्यत्, न० त०]=अक्षम्य।
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अक्षता  : वि० [सं०√क्षण्+क्त-टाप्, न० त०]=अक्षत योनि। स्त्री०१. वह स्त्री० जिसका पुनर्विवाह तक किसी पुरुष से संयोग न हुआ हो। २. काकड़ा सींगी।
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अक्षपद  : पुं०=अक्षपाद।
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अक्षम  : वि० [सं०√क्षम् (सहसा)+अच्, न० त०] १. जिसमें क्षमता या शक्ति न हो। अशक्त। असर्मथ। २. जिसमें कार्य करने की योग्यता न हो। अयोग्य। ३. जो साधारण दोषों के लिए भी किसी को क्षमा न करे। जिसमें सहनशीलता न हो। असहिष्णु। ४. जो किसी का उत्कर्ष या सुख अच्छी दृष्टि से न देख सके। ईर्ष्या करनेवाला।
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अक्षमता  : स्त्री० [सं० अक्षम+तल्-टाप्] १. अक्षम होने की अवस्था या भाव। २. अशक्तता। असमर्थता। ३. ईर्ष्या। डाह।
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अक्षम्य  : वि० [सं० न० त०] १. (व्यक्ति) जिसे क्षमा न किया जा सकता हो। २. (अपराध या दोष) जिसके लिए कर्ता को क्षमा न किया जा सकता हो।
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अक्षय  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका क्षय या नाश न हो। अविनाशी। २. गरीब। निर्धन। पुं० परमात्मा का एक नाम या विश्लेषण।
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अक्षय-तृतीया  : स्त्री० [कर्म० स०] वैशाख शुल्क-तृतीया। आखातीज। (पर्व)
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अक्षय-पद  : पुं० (कर्म० स०) मोक्ष। वि० दे० ‘परमपद'।
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अक्षय-लोक  : पुं० (कर्म० स०) स्वर्ग।
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अक्षय-वट  : पुं० (कर्म० स०) प्रयाग और गया के प्रसिद्ध वटवृक्ष जो हजारों वर्ष पुराने कहे जाते है।
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अक्षय-वृक्ष  : पुं०=अक्षयवट।
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अक्षयकुमार  : पुं०=अक्षकुमार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अक्षया  : स्त्री० [सं० अक्षय+टाप्] गणित ज्योतिष में कुछ विशिष्ट ऐसी तिथियाँ जो कुछ विशिष्ट दिनों में पड़ती हों। जैसे—रविवार को होने वाली सप्तमी, सोमवार को होने वाली अमावस्या या मंगलवार को होने वाली चौथ।
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अक्षयिणी  : स्त्री० [सं० क्षयिणी, क्षय+इनि-डीप्, अक्षयिणी, न० त०] पार्वती।
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अक्षयी (यिन्)  : वि० [सं० क्षय+इनि, न० त०] [स्त्री० अक्षयिणी] जिसका क्षय या नाश न हो। अक्षय।
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अक्षय्य  : वि० [सं०√क्षि (क्षय) +यत् नि०न० त०] जिसका किसी प्रकार क्षय न किया जा सके। प्रायः सदा एक सा बना रहनेवाला।
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अक्षर  : वि० [सं०√क्षर्+अच्, न० त०] १. जिसका क्षय या नाश न हो। अविनाशी। नित्य। २. अच्युत। ३. स्थिर। पुं० १. ध्वनिगत लघुतम इकाई। वर्ण (एलफाबेट) २. वह चिन्ह या संकेत जो उक्त ध्वनि का सूचक होता है। (लेटर) मुहावरा—अक्षर घोंटना=अक्षर लिखने का अभ्यास करना। पद—विधना के अक्षर=भाग्य का लेख जो बदल या मिट नहीं सकता। ३. आत्मा। ४. परमात्मा या ब्रह्वा का वह आध्यात्मिक स्वरूप जिसके आश्रय से उनके प्रकृति और पुरुष का रूप धारण किया है। ५. आकाश। ६. धर्म। ७. तपस्या। ८. मोक्ष। ९. जल। पानी। १. चिचिड़ा।
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अक्षर-क्रम  : पुं० [ष० त०] नामों, शब्दों आदि की सूची बनाते समय, उन्हें रखने या लगाने का वह क्रम जिसमें उनके आरंभिक अक्षर उसी क्रम से रहते हैं जिस क्रम से वे वर्णमाला में होते है। (एल्फाबेटिकल आर्डर)
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अक्षर-गणित  : पुं० [ष० त०] बीजगणित।
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अक्षर-जीवक  : पुं० [सं० अक्षर√जीव्+ण्वुल्-अक्]=अक्षर-जीवी।
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अक्षर-जीवी (बिन्)  : पुं० [अक्षर√जीव्+णिनि,] पढ़ाई-लिखाई के काम से जीविका चलानेवाला व्यक्ति।
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अक्षर-ज्ञान  : पुं० [ष० त०] अक्षरों के पढ़ने-लिखने का ज्ञान। साक्षरता।
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अक्षर-धाम (न्)  : पुं० [ष० त०) ब्रह्यलोक।
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अक्षर-न्यास  : पुं० [ष० त०] १. लिखावट। २. लेख। ३. तांत्रिक पूजन में वह क्रिया जिसमें मंत्र के एक-एक अक्षर का उच्चारण करते हुए शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों का स्पर्श किया जाता है।
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अक्षर-पंक्ति  : स्त्री० [ष० त०] चार चरणों का एक वैदिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में २॰ वर्ण होते हैं।
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अक्षर-बंध  : पुं० [ब० स०] एक प्रकार का वर्णवृत्त।
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अक्षर-माला  : स्त्री० [ष० त०] वर्णमाला।
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अक्षर-योजना  : स्त्री० [ष० त०] किसी विशेष उद्देश्य से अथवा कोई विशेष रूप देने या विशेष अर्थ निकालने के लिए किसी विशेष क्रम से कुछ अक्षर बैठाना। जैसे—मुक्तर की अक्षर-योजना।
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अक्षर-विन्यास  : पुं० [ष० त०] १. लिखावट। २. शब्दों के वर्णों का विन्यास। अक्षरी। हिज्जे।
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अक्षरच्छंद  : पुं० [तृ० त०]=वर्णवृत्त।
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अक्षरशः (शस्)  : क्रि० वि० [सं० अक्षर+शस्] कथन या लेख के) एक-एक अक्षर का ध्यान रखते हुए अथवा उनका अनुकरण या पालन करते हुए। ठीक ज्यों का त्यों।
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अक्षरा  : स्त्री० [सं० अक्षर+अच्, टाप्] १. शब्द। २. भाषा।
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अक्षराक्षर  : पुं० [सं० अक्षर-अक्षर, ब० स०] योग में एक प्रकार की समाधि। क्रि० वि० [अव्य० स०] अक्षरशः।
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अक्षरारंभ  : पुं० [सं० अक्षर-आरंभ, ष० त०] (किसी को) पहले पहल अक्षरों का ज्ञान या परिचय कराना। पढ़ाना आरंभ करना।
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अक्षरार्थ  : पुं० [सं० अक्षर-अर्थ, ष० त०] १. शब्द के प्रत्येक अक्षर का अर्थ। शब्दार्थ। (भावार्थ से भिन्न)
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अक्षरावस्थान  : पुं० दे० ‘अपश्रुति'।
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अक्षरी  : स्त्री० [सं०√अश्+ (व्याप्ति) सरन्, डीष्] १. शब्दों के अक्षरों का उनके ठीक क्रम के अनुसार उच्चारण करना अथवा लिखना। वर्तनी। हिज्जे। २. वर्षा ऋतु।
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अक्षरौटी  : स्त्री० १. दे० अखरावट। २. दे० ‘अखरौटी’।
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अक्षर्य  : वि० [सं० अक्षर+यत् अक्षर-संबंधी। पुं० एक वैदिक साम का नाम।
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अक्षार  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें क्षार न हो। क्षार-रहित। २. जो स्वयं क्षार न हो। क्षार से भिन्न। पुं०=अक्षार-लवण।
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अक्षार-लवण  : पुं० [सं० क्षार-लवण, कर्म० स० न०-क्षार लवण, न० त०] वह लवण (नमक) जिसमें खार न हो। प्राकृतिक नमक।
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अक्षावाप  : पुं० [सं० अक्ष-आ√ वप् (फेंकना)+अणु) जुआरी।
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अक्षांश  : पुं० [सं० अक्ष-अंश, ष० त०] १. किसी चीज के बड़े बल का या चौड़ाई की ओर का विस्तार या परिणाम। २. भूगोल में वह कल्पित रेखा जो याम्योत्तर वृत्त को ३६॰ अंशों या भागों में विभक्त करके उसमें से किसी अंश से भूमध्य रेखा के समानांतर खींची जाती है। ३. उक्त रेखा के आधार पर किसी स्थान की वह स्थिति या दूरी जो भूमध्य रेखा के उत्तर या दक्षिण होने के विचार से स्थिर की जाती और संख्या सूचक अंशों में बतलाई जाती है। (लैटीच्यूड) ४. कांतिवृत्त के उत्तर या दक्षिण होने के विचार से किसी नक्षत्र का कोण बनाने वाला अंतर।
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अक्षि  : स्त्री० [सं०√अश् (व्याप्ति) + क्सि] १. आँख। नेत्र। २. दो की संख्या।
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अक्षि-कूट (कूटक)  : पुं० [ष०त०] आँख की पुतली।
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अक्षि-गोलक  : पुं० [ष० त०] आँख का डेला जिसके बीच में पुतली होती है। (आई-बाल)
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अक्षि-तारक  : पुं० [ष० त०] आँख का तारा।
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अक्षि-तारा  : स्त्री० [ष० त०]=अक्षितारक।
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अक्षि-पटल  : पुं० [ष० त०) आँख का ऊपरी भाग या परदा।
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अक्षि-लोम (मन्)  : पुं० [ष०त०] बरौनी।
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अक्षि-विक्षेप  : पुं० [ष० त०] तिरछी नजर। कटाक्ष।
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अक्षिक  : पुं० [सं० अक्ष + ठन्-इक] आल का पेड़।
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अक्षित  : वि० [सं० अक्षीण] १. जिसका क्षय न हुआ हो। २. न छीजने वाला। ३.जिसे चोट न लगी हो। पुं० १. जल। २. दस लाख की संख्या।
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अक्षिति  : वि० [सं० न० ब०] जिसका क्षय या नाश न हो। स्त्री० (क्षि√क्तिन्, न० त०) नश्वरता।
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अक्षी  : वि० =अक्षीय।
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अक्षीण  : वि० [सं० न० त०] १. जो क्षीण (या दुबला-पतला) न हो। २. मोटा। हष्ट-पुष्ट। ३. जो किसी तरह घटा न हो।
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अक्षीय  : वि० [सं० अक्ष + छ-ईय] १. अक्ष से संबंध रखने वाला। (ऐक्सिअल) २. किसी वस्तु के उदर या भीतरी भाग में होने या उससे संबंध रखने वाला। (वेन्ट्रल)
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अक्षीव  : वि० [सं०√क्षीव् + क वा क्त, न० त०] जो मतवाला या मत न हो। अमत्त। पुं० १. समुद्री नमक। २. सहिंजन का पेड़।
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अक्षुण  : वि० =अक्षुण्ण।
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अक्षुण्य  : वि० [सं० न० त०] १. जो क्षुण्ण, खंडित या टूटा-फूटा न हो। पूरा। समूचा। २. जो कम न हुआ हो। बिना घटा हुआ। ३. जो कुशल या चतुर न हो। अनाड़ी। ना-समझ। ४. जो हारा हो। अपराजित।
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अक्षुध्य  : वि० [सं० न० त०] (पदार्थ) जिसे खाने से भूख न लगे या बहुत कम लगे। भूख बंद करनेवाला।
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अक्षेत्र  : वि० [सं० न० त०] १. जो क्षेत्र न हो। २. जो क्षेत्र बनने के लिए उपयुक्त न हो। जैसे—अक्षेत्र भूमि, अक्षेत्र छात्र आदि। ३. जिसे प्रकृति शरीर आदि के स्वरूप का ज्ञान न हो, अर्थात् तत्त्व-ज्ञान से रहित या शून्य। पुं० १. क्षेत्र का अभाव। २. ऐसी भूमि जिसमें खेती न हो सकती हो। ३. ज्यामिति में वह आकृति जो ठीक या शुद्ध न हो।
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अक्षेत्री (त्रिन्)  : वि० [सं० क्षेत्र + इनि, न० त०] जिसके पास खेत न हो।
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अक्षेम  : पुं० [सं० न० त०] १. क्षेम का अभाव। २. अशुभ हानि कारक आदि होने की अवस्था। अमंगल।
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अक्षोट  : पुं० [सं०√अक्ष् + ओट्] अखरोट।
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अक्षोनि  : स्त्री०=अक्षौहिणी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अक्षोभ  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें क्षोभ या उद्वेग न हो। फलतः शान्त। २. हाथी बाँधने का खूँटा।
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अक्षोभ्य  : वि० [सं० क्षुभ् (विचलित होना)+णिच्+यत्, न० त०] १. जिसमें क्षोभ न उत्पन्न किया जा सके। २. जो कभी क्षुब्ध न होता हो। सदा धीर और शान्त बना रहने वाला पुं० गौतम बुद्ध का एक नाम।
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अक्षौहिणी  : स्त्री० [सं० ऊह+इनि, अक्ष-ऊहिनी, ष० त०] प्राचीन काल की चतुरंगिणी सेना जिसमें १,॰९,३५॰ पैदल, ६५,६१॰ घोड़े, २१,८७॰ रथ और २१,८७॰ हाथी होते थे।
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अक्स  : पुं० [अ०] [वि० अक्सी] १. छाया। परछाई। २. प्रतिबिंब। ३. चित्र। तस्वीर। ४. मन में छिपा हुआ द्वेष या शत्रुता।
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अक्सर  : क्रि० वि० [अ०] अनेक अवसरों पर। प्रायः। बहुधा। वि० दे० ‘अक्सर’।
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अक्सी  : वि० [अ०] १. अक्स या छाया से संबंध रखनेवाला। अक्स या प्रतिबिंब के रूप में पड़नेवाला। जैसे—अक्सी तसवीर=छाया-चित्र। ३. मनमें अक्स (अकस) या द्वेष रखनेवाला।
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अक्सीर  : वि० [अ०] निश्चित रूप से अपना गुण, प्रभाव या फल दिखाने वाला। पुं० वह कल्पित रासायनिक पदार्थ जिसके योग से दूसरी धातुएँ चाँदी या सोना बन जाती हों। रसायन। कीमिया।
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